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मेरी रूठी प्रेम गाथा

मेरी रूठी प्रेम गाथा

२३ सितम्बर १९७२

मेरी शादी के विषय को ले कर मेरे सम्बन्ध अपने माँ-बाप से पहले ही विच्छेद हो गए थे . मुझे अब यह काम भी स्वतंत्र रूप से ही करना था. कई विज्ञापनों का पत्रोत्तर दे चूका था पर सब मिला कर दो ही पत्रोत्तेर प्राप्त हुए, उनमे से जो रिश्ता मुझे पसंद आया था वह मुरादाबाद में गली पतली-गंज से श्री कौशिक्जी का था . विवरण मैं लिखा था की उनकी पोती सरोज एम् ए की परीक्षा दे चुकी हैं और अब उसके लिए उपयुक्त वर की तलाश है. अन्य कद-काठी , व् अचार-विचार भी ठीक ही लगे.

मैं भारतीय वायु सेना मैं एक वैमानिक की हैसियत से दिल्ली मैं कार्य-रत था और पालम मैं मेस के एक कमरे मैं रहता था. एक रविवार को उनसे मिलने की बात तय हुई अतः मैं शनिवार की दोपहर को भोजन उपरांत अपनर स्कूटर पर सवार हो कर मुरादाबाद के लिए निकल चला. मेरे साथ एक ओवर निघ्टर था जिसकी एक तरफ मेर रात के कपडे थे और दूसरी तरफ शादी की लाल तिल्लेदार साडी का जोड़ा और गले का हार था, और दिल मैं भरी थीं ढेर सारी उमंगें. अगर कन्या मैं कुछ विशेष त्रुटि न हो तो अपने विचार से तो मैं सगाई कर के लौटता . मैं उस रातको मुरादाबाद पहुंचा और वहां एक होटल मैं ठहर गया. रात काफी हो चुकी थी अतः फोन नहीं किया. अगले दिन प्रातः जिस गली का पता मेरे पास था वह सच-मुच ही बहुत पतली थी . फिर भी ठीक दस बजे मैंने उनके द्वार पर दस्तक दी. काफी देर तक अंदर कोई गति-विधि नहीं सुने पड़ी, मैं सोच रहा था की शायद यह उनके घर का पिछवाड़ा होगा, सामने से जा कर घंटी बजाऊँ. इधर उधर देखा तो कुछ लोगों को चहल-पहल करते देखा वाहन पर लोगों के आलावा कुछ सूवर, कुत्ते, और दो-एक गायें भी थीं. कुछ ढाढस बंधा. शायद किसी ने सुना ही न हो, अतः मैंने इस बार खूब ज़ोरों से दरवाजा पीटा और फिर द्रिष्टि यहाँ वहांदौडाने लगा. आगे नाली के रुके हुए पानी को खोलने हेतु कुछ लोग शोर ज्यादा और काम कम कर रहे थे. विचार हुआ की यह कोई उपयुक्त समय नहीं है. जिस प्रकार गली मैं काम चल रहा है, उसी प्रकार घर मैं भी रोज़-मर्रा की गतिविधि हो रहीं होंगी. ऐसा विचार कर मैं ज्यों ही मुड़ने को हुआ तो वह जड़-दरवाजा स्वतः खुलने लगा.

दरवाजे के मध्य मेंएक २४-२५ साल की लड़की खड़ी हुई थी, जैसे किसी ने जादू से उसे पैदा कर दिया हो. ऐसा लग रहा था की जैसे वोह अभी-अभी नहा कर निकली हो. भीगी बालों को तौलिये में लपेटा था, हाथ में एक प्लास्टिक की बाल्टी थी, उसमे कुछ धुले कपडे थे जिन्हें वह सुखाने के लिए लायी हो. उसके चेहरे पर कोई स्पष्ट भाव नहीं था. फिर मैंने देखा की उससे चिपका हुआ एक चेहरा और भी उसकी कटी के पास भाव शून्य आँखों से मुझे तक रहा था. बालक की उम्र होगी ७-८ साल की और उसे भी एक तौलिये में लपेटा हुआ था. कुछ देर तो वे दोनों मुझे और में उन दोनों को यूँ ही निहारते रहे. फिर लड़की की आँखों का वह निहारना, घूरना बन गया. संयोग से उस बालक की आँखों के भाव भी वैसे ही बन गए. फिर,शायद उन्होंने मेरी हाथ में संदूकची को देख लिया था, पुछा की में कौन और किस अभिप्राय से सुबह –सुबह वातावरण को दूषित कर रहा हूँ – परिचय मांग रही थी. में कुछ भोंचाक्का सा बोला,” श्री कौशिकजी क्या यहीं रहते हैं? मेर पास जो पता है उसके हिसाब से तो यह ही मेरा गंतव्य लग रहा है. उसकी आँखें भी मेरे हाथ के लिफाफे पैर लिखी लिखाई को टटोलने लगी. वह बालक भी उचक कर देखने का यत्न करने लगा. मुझे कुछ अजीब सा लगने लगा, मैंने फिरसे पुछा, “कौशिकजी का क्या यही निवास है?” वह अचानक मानो नींद से जागी हो, बोली, “किस लिए मिलना चाहते हो?” उसकी आवाज़ मधुर थी, उसके सौम्य चेहरे की तरह. जैसे यकायक उसे मेरे हाथ में पकड़ेपोस्ट कार्ड का रहस्य समझ में आ गया हो, वह बिना कुछ बोले मुडकर घर की ओर भाग गई. बस वह लड़का ही खड़ा मुझे शून्य द्रिष्टि से देखता रहा. उसके मुड़ने के अंदाज़ से ही में मुग्ध हो गया. अगर यही वह लड़की है तो.... बस बात बन ही गयी ,समझो!

मैंने दो कदम बढ़ा कर दरवाज़े के अंदर झाँका तो प्रतीत हुआ की घर के आगे एक खुला आँगन है. आँगन में सब कुछ बेतरतीब पड़ा हुआ था. एक कोने में लकड़ी-कोयला पड़ा था. उसके पास एक टूटी हुई साइकिल एक गमले के सहारे लगी हुई थी.दो-तीन गमले और भी थे पर सब में सूखे हुए पौधों के ठूंठ ही नज़र आ रहे थे. थोड़ी दूर दो टूटी हुई कुर्सिँ और एन मूंज की खाटपड़ी थी जिसका एक पाया हवा में झूल रहा था. ऊपर तार पर कुछ कपडे पड़े थे जिन्हें अभी फेलाना बाकी था. मेर मन कुछ कुंठित होने लगा. मेरे हाव-भाव देख कर वह लड़का भी मुड कर भाग गया. सिर्फ में और मेरी हसरत ही टापते से रह गए थे. जिस चपलता से यह दोनों अद्रश्य हुए थे कुछ उसी चपलता से एक वायो-वृद्ध वहां अवतरित हो गए. उन्होंने पजामा तो पहना था पर ऊपर का शारीर वस्त्र विहीन था. अभी जो सवाल –जवाब हुये थे वहसब लगभग उसी क्रम में दोहराए गए. उनका चेहरा भी इस दौरान प्रायः वैसा ही रहा जैसा उन लड़की और लड़के का था. फिर उन्हों ने वह पोस्टकार्ड मेरे हाथ से ले कर चार-पांच दफा उल्टा-पुल्टा जैसे वह कोई अजूबा हो. उन्हें जैसे अचानक ज्ञान कि प्राप्ति हो गई हो, उनके चेहरे के भाव साफ़ हो गए और वे कफ से बोझिल आवाज़ में बोले,’ अच्छा, तो तुम हो’. मुझे प्रसन्नता हुई के आखिर में में ही था. आगे बढ़ कर मेरा हाथ पकड़ कर, प्रायः खींचते हुए मुझे उन्हों ने भीतर कर लिया.

उस उजड़े हुए किचन-गार्डन से गुजर कर हम कमरे में पहुंचे वहां तीन पुराने सोफों के अलावा दो-तीन तिपाई और एक तखत भी पड़ा हुआ था. ऊपर बिजली का एक नाख्खासी पंखा उपनी ही चूं-चूं कि धवनी पर थिरक-थिरक कर मानो नृत्य कर रहा था. इस प्रक्रिया से वह जून की भरी गर्मी में समां को हल्का करने में योगदान दे रहा था. वहां कि दीवारें भी रंगे-पुताई के लिए गुहार लगा लगा कर अब थक चुकीं थी. मुझे एक तरफ खड़ा करके वे बुजुर्गवार सोफों कि सफाई में जुट गए. दो-चार मिनट इस प्रकार निकल गए तो उनकी तस्सली हुई कि इस से ज्यादा साफ़ वे बाबा आदम के आसन नहीं हो सकते थे. उन्हें जो सब से प्रिय सोफा था वहां बैठने का संकेत मुझे किया. जब में बैठ गया तो थोड़ी देर मुझे निहार के किसी अद्रश्य व्यक्ति को पुकार कर पानी लाने के लिए आवाज़ लगाई.

मुझे लगने लगा कि में व्यर्थ ही यहाँ आया, न तो मुझे शहर न गली न कमरा न वह सोफा पसंद आया,न ही अब तक मेर आने कि वजह हिसे कोई उत्तेजना नज़र आई. पर जब उस लड़की कि तरफ ध्यान जाता तो लगता था कि ऐसा नहीं है, प्रतीक्षा का फल सुखद होता है. अपनी उलझन को एक तरफ हटा कर, अन्ततोगत्वा बुजुर्गवार अपना परिचय देने लगे,’में सरोज का और इन बच्चों का नाना हूँ, यह सात भाई-बहन यहाँ अपनी माँ के साथ रहते हैं. इनके पिताजी और मेरे दामादजी मजोर कुमार फ़ौज में हैं और कलईकुंडा में पोस्टेड हैं. अच्छा-ख़ासा लंबा परिचय रहा पर इस में नै बात कुछ भी न थी, क्यों कि यही सब तो पोस्टकार्ड में भी लिखा था. तभी कमरे का झीना सा पर्दा हिला और वही लड़की प्रकट हो गई. अब उसने बाल सवांर लिए थे और वस्त्र भी अच्छे पहन लिए थे, उसके चेहरे पर अब वह भाव था जो हर उस लड़की के चेहरे पर तब होता है जब उसे कोई देखने आता है-अति मनोरम. उसके हाथों में एक ट्रे थी जिसमे दो ग्लास चाय और कुछ मिठाई राखी थी, उस ट्रे को उसने मेर सामने वाली तिपाई पर रख दिया और बिना मेरी तरफ देखे वहां सो जाने के लिए उद्यत हुई. तभी नानाजी ने उसे बैठने का इशारा किया तो वह सिमट कर बैठ गयी.उस कि चुन्नी का एक अंश उस के मुंह में था और सर झुका कर वह अपने ही पैरों कि तरफ देखने लगी. यही मूरत मेरे ह्रदय में घर कर गई. मुझे लगने लगा कि वह अपने सरोज नाम को भली भांति सार्थक कर रही है. जिस प्रकार कीचड में रह कर भी कमाल का पुष्प अति सुंदर होता है उसी प्रकार सरोज भी लगने लगी; यह लड़की भी अपने घर कि हर त्रुटि से ऊपर उठ कर अपनी सुंदरता को व्यक्त कर रही थी. मन ही मन असके साथ जीवन निर्वाह करने कि इच्छा जागृत हो गई.

नानाजी कि बातें नॉन-स्टॉप चल रहीं थी,जैसे अंतहीन हों. इसी बीच सरोज कि एक और स्त्री भी आ कर एक सोफे में समां गई, नानाजी पर उसके आगमन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. जब मैंने उनकी ओर नानाजी का ध्यान दिलाया तो थोड़ी झुझलाहट के साथ खामोश हो गए, मानो उसका परिचय स्वयं ही खोज रहे हों, फिर सयंत हो करकर ओर उन महिला को सरोज कि माता बता कर उन पर ही आख्यान करने लगे. बात काट कर में उठ के उनके पास गया और हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, इस भांति, अपनी पीठ मैंने नानाजी कि ओर करली, उन्हें बुरा लगे तो लगे.अब मैंने माताजी का सीधा संबोधन किया,’ मुझे सरोज पसंद है’. सब ओर एक स्ताभ्ता छाह गई. में ही पुनः बोला,’ आपको पत्र द्वारा इस शादी के लिए जल्दी का वर्णन में अपनी माता के ऑपरेशन कि वजह से कर ही चूका हूँ, और इस समय सगाई के हेतु मेरे पास कुछ सामग्री है, अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो में यह कार्यवाही अभी कर देना चाहता हूँ’. यह कह कर मैंने अपनी संदूकची आगे करदी.

मेरे इस प्रकार आग्रह करने पर सब लोगों को जैसे सांप सूंघ गया हो, वह स्थिति बन गई. दो-चार मिनट सब ऐसे ही स्तभ रहे और मेरे मस्तिष्क में जैसे उफान उठ रहे थे. अचानक वे तीनो शीघ्रता से उठे ओर उसी झीने से परदे के पीछे गायब हो गए. कमरे में रह गए में, वह लड़का और ठंडी चाय का प्याला. मेरे मन में उस बालक से पूछने के लिए कुछ भी न था. शांति से चाय पीते हुए उन कि प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा. कोई १५-२० मिनट पश्चात दोनों नाना और उनकी बेटी लौट के आगये, वह्सुंदर रूपिणी और वह बालक तो जैसे मेरे सवालों कि गर्दिश में ही कहीं खो चुके थे. उपस्थितों के चेहरे के भाव देख कर न तो खुशी का और न दुःख का ही अहसास हुआ. प्रश्न था कि क्या उन लोगों ने मुझे स्वीकार किया है अथवा अस्वीकार? सुब खामोश थे बस ऊपर पंखे कि चूं-चूं कि ध्वनि ही अपना कोई अपरिचित राग सुना रही थी, इसके अलावा वक्त थम गया था.

नानाजी ने शून्य में विचरते हुए अपनी घर्राई आवाज़ में निर्णय दिया कि रिश्ता तो उन्हें पसंद है,पर चूंकि सरोज के पिता वहां नहीं है इस कारण से वे अपना कोई निश्चयात्मक फैसला नहीं दे पा रहें हैं. और यही वजह है कि वे किसी रसम को भी अदा नहीं कर पायेंगे. में फिर बोला,”आपको में पहले भी पत्रों के द्वारा शादी की जल्दी कि बात कर चूका हूँ यही कारन है कि में अपनी ओर से सर्वथा तैयार हो कर आया हूँ. में अधिक देर नहीं कर सकता हूँ क्यों कि इसके बाद माँ के ऑपरेशन में व्यस्त हो जाएंगे. फिर यह भी तो नहीं पता कि सरोज के पिता कब तक आयेंगे.’ उन दिनों तो मोबाइल फोन होते ही नहीं थे और टेलीफोन पर कहीं बात करना लगभग असंभव सा ही था. दरअसल में, मेरी माँ का पेट का ऑपरेशन अगले माह के अंत में होना था और उनकी जिद्द थी कि बहु का मुख देख कर अस्पताल जाएँगी तो जल्दी ही स्वस्थ हो कर आ जाएँगी,वरना क्या होगा, क्या पता. हमारी योजना थी कि हम न दान लेंगे न दहेज, बस एक जोड़ी कपड़ों में दुल्हन को छोटी सी सभा में विवाह कर के ले जायंगे अथवा कोर्ट में शादी हो जायेगी. में समझाने के लिए फिर बोला,”अगर आप लोग मान जाएँ और सरोज के पिता भी अगर तब तक आ गए तो हम आगामी पांच तारीख को दिल्ली में शादी का आयोजन करा देंगें, आपको उसके हेतु कोई तय्यारी या खर्च नहीं करना पड़ेगा.’ बहुत कहने-सुनने के बाब भी उन कि ओर से कोई आश्वासन नहीं मिला , बस एक ही बात कहते रहे,” सरोज के पिता कि सहमति के बिना कोई भी फैसला नहीं होगा. बात वहीँ खतम हो गई. या , शायद नहीं भी…………………..

मेरे बहुत समझाने के बावजूद वे टस से मस नहीं हुए, पर एक आश्वासन उन्होंने अनमने में दिया कि वे अगले ४-५ दिन में मुझे फोन पर अथवा पत्र द्वारा जवाब देंग और प्रयत्न करेंगे कि सगाई ८-१० दिन में और विवाह भी ऑपरेशन के पहले ही करदेंगे. मैं वहां से उठ कर होटल चला गया और स्कूटर उठा कर पुनः दिल्ली लौट गया. वहां बात न बनाने का मुझे अत्यंत क्षोभ हुआ, सचमुच ही मुझे सरोज बहुत गहरे से भा गई थी. खैर मनाता रहा कि सब कुछ शीघ्रता से निबट जाए.

धीरे धीरे समय कि गर्दिश मैं सब डूब गया.



३० नवंबर १९७२.


अपनी नई-नवेली दुल्हन कि कहानी भी सुना ही दूं आपको. एक रिश्ता अलीगढ़ से आया था और उन्हों ने शीघ्र विवाह कि बात पत्रों द्वारा हम तक कह दी थी. तुरंत मैं और मेरी छोटी बहन अलीगढ़ पहुँच गए. वहां आनन्-फानन मैं सब बात तय हो गई. मुझे याद है उस दिन धन तेरस थी और दीपावली मैं अभी १० दिन और थे. हमने प्रस्ताव रखा कि हम अभी ही सगाई करना चाहते हैं तो वे भी राजी हो गए. घंटे भर मैं सब सामग्री संजोली गई. मैंने भी अपना सूटकेस खोला और शादी का जोड़ा एक थाल मैं रख कर संतोष जी को दिया, उनकी तरफ से भी कपडे, मिथियों और अन्य देय वस्तुओं का अम्बार लग गया. इसके बाद उनकी ओर से कई और लोग भी आ गए, खूब गाना-बजाना हुआ और शाम तक मेरे मन मैं संतोषजी पत्नी-स्वरुप स्थापित हो चुकीं थी. हमारी शादी दिवाली से दो दिन पूर्व दिल्ली मैं संपन्न हुई. मुझे मेरी पत्नी और मेरी माँ को उनकी बहु भी मिल गई. सरोज वालों का न कोई जवाब आया न वहां की सोच ही मेरे ज़हन मैं रही. माँ के ऑपरेशन के बाद मैं अपनी नव-विवाहित पत्नी के साथ घर-गृहस्ती मैं रम गया. कोई ४ महीनों के बाद एक दिन एक पोस्ट कार्ड आया कि वे लोग मुझसे मिलना चाहते हैं. उत्तर मैं मैंने अभी तक कि समस्त घटनाओं का विवरण दे कर माफ़ी मांग ली. अब लगा कि बात खत्म हुई. या अभी भी नहीं खतम हुई.................

दिन बीतते गयेगाये साल महीने तो क्या पूरा मिल्लेनियम ही बीत गया.

संतोष से मेरे विवाह को आज-कल के सन्दर्भ में सफल ही कहा जाएगा, वैसे न कोई विशेष अच्छी न कोई विशेष खराब घटना हुई न ही कोई विशेष यादगार इस वक्त सुझाई देती है. जैसा हर परिवार में होता है वही सब हुआ. खूब घनिष्ट प्यार, बढ़िया-बढ़िया तकरारें और बहुत सुंदर सी अपनी ही दुनिया. हमारे दो बच्चे हुए, लड़की बड़ी थी और उसके विवाह के भी १० वर्ष हो चुके थे, लड़का सॉफ्टवेर इंजिनियर हुआ और गत वर्ष उसका भी विवाह संपन्न हो गया. हाँ याद आया, हमारे विवाह के कोई दो माह के उपरांत मेरे नाम से सरोज जी का एक पत्र आया था. उस में लिखा था उसके पिता सेवा से निवृत हो कर अब कलईकुंडा से घर आ गए हैं,तथा नानजी भी चल बसे हैं. शायद इन्हीं दो कारनों से हमारे रिश्ते की बात कहीं अटक गई थी. मुझे बुरा लगा की सरोज अभी भी मेरा इंतज़ार कर रही है, इस से यह भी लगा की उसके मन में भी मेरे प्रति सुविचार ही हैं, फिर लगा की कहीं और बात ना चलने के कारण उसने ही यह पत्र लिखा था. मेरी उलझन बढ़ गई क्योंकि उस समय मेरी शादी नई-नई थी, और कहीं मैंने अनजाने मैं एक असली प्यार के रिश्ते को न नकार दिया हो. रह-रह कर उसका चेहरा आँखों के आगे घूम जाता था. पर, अन्तोत्गत्वा यही हुआ न की चिड़िया चुग गई खेत................. . कुछ भी हो, मुझे आज भी उसके प्रति हमदर्दी है. काफी विचारने के बाद मैंने उस पत्र का एक लंबा सा प्रत्युत्तर दिया, लिखा, कि अब मेरा विवाह हो चूका है, अगर वे लोग अपनी मजबूरियों को ठीक से मुझे बता देते तो में अवश्य ही इंतज़ार करता. अपनी शादी कि जल्दबाजी तो विस्तार सहित उनके घर पर ही बयां करचुका था.

इस पत्र के उत्तर में उसके पिता का जवाब आया कि अगर मेरी नीयत है और कोई दान-दहेज कि बात हो तो वे उस विषय पर भी सोच सकते हैं. यह निश्चित रूप से हास्य-प्रद बात थी, उन्होंने क्या यह नहीं पढ़ा कि मेरा विवाह संपन्न हो चूका है, या वे यह विचार रहे थे कि मैंने जो कुछ भी लिखा वह दहेज लेने कि द्रिष्टि से था, पर मन में पक्का हो गया किसरोज के मन में मेरी प्रति कुछ अच्छी आस्था है. इसका मैंने कोई उत्तर नहीं दिया,सिर्फ अपनी और संतोष कि शादी कि एक फोटो भेज दी, लगा बात खतम, या फिर शायद बात नहीं खतम हुई हो............. .

उसके बाद, फिर कभी मुझे वहां से पत्र नहीं आया, जिंदगी अपनी ही सुर और ताल पर आगे बढ़ती चली गई. पर, न जाने क्यों, में कभी भी सरोज को पूरी तरह नहीं भुला सका. हलाँ कि में उसकी फोटो वापिस कर चूका था, लेकिन उसका चेहरा अनायास ही आँखों के सामने घूम जाता था. इतने वर्ष बीतने के बाद वह कैसी लगती होगी, यह किसी भी परिकल्पना के परे ही था. मेरी शादी के ३५ साल हो चुके थे, और एक दिन अचानक संतोष अपनी जीवन लीला समाप्त कर परलोक सिधार गयीं. मेरे ऊपर वज्रपात हुआ और बहुत अरसे तक में अपने आपको संभाल नहीं सका. अब तो हमारा नॉएडा वाला घर ही हमारे पारिवारिक जीवन का साक्षी है, लड़की तो अपने विवाहोपरांत पराई हो ही जाती हैं, लड़का भी अपना जीवन-यापन हेतु अपने परिवार सहित विदेश चला गया. इतने प्यार से ओत-प्रोत गृहस्थी कुछ ही क्षणों में बेहद वीरान और सूनी हो गई. लड़की का विवाह पश्चात पराया हो जाना स्वाभाविक है, माँ-बाप तो शुरू से उसे यही आशीर्वाद देतें हैं कि सुसराल में खूब प्यार-इज्ज़त मिले. लेकिन लड़के का पर्य हो जाना खेद-विशेष कि बात है. यह बहुत ही कष्टपूर्ण होता है, मुझे जिंदगी यह भी सिखा गई. संतोष के जाने के बाद अब दो वर्ष से अधिक समय बीत चूका था पर मेरा जिंदगी से समझौता ना हो पाया. मन कि उलझन और परेशानियां दिनों-दिन बढ़ती ही गईं. पत्नी के जाने का दुःख तो अब जीवन पर्यन्त ही रहेगा,शायद एक शराबी कि नशे कि लत कि तरह. हर छोटी-बड़ी बात में पत्नी कि कोई न कोई याद छुपी रहती है. बस मन मार कर अपने आपको यही समझाता रहता हूँ जाने वाले, कभी नहीं आते, हम भी एक दिन वहीँ पहुंचेंगे जहाँ अतीत में पत्नी समां गईं थी. यह तो पत्नी कि व्याधि थी, पर पुत्र किव्यधि कुछ और ही चीज़ होती है..................

बेटे कि शादी के अभी दो ही वर्ष बीते होंगे, वह काम-काज के सील-सिले में घर से सुबह ही निकल जाता था और घर आते आते नौ बज जाते थे, शनिवार-रविवार को उसकी पत्निहफ्ते भर के इंतज़ार के बाद एक पल भी नहीं छोड़ती थी, दोनों ही देर तक सोते और फिर तैयार होकर दिन भर के लिए गायब हो जाते थे. में तन्हाई से जूझता रहता और धीरे-धीरे घर के बकाया कामों के लिए अपने आप को जिम्मेदार मानने लगा. उनको भी आनंद हुआ कि घर कि तरफ से पूर्णतः बेफ़िक्री. मेरे प्रति अपनी दुति पूरी करने के लिए कभी नई कमीज़, कभी सहगल कि सी डी, कभी कोई पुस्तक, तो कभी कुछ और, सिर्फ थोड़ा सा उनका वक्त ही मुझे प्राप्त नहीं था. धीरे-धीरे घर खर्च को भी नज़र अंदाज़ करने लगेऔर मेरी पेंशन पर ही सब कुछ टिक कर रह गया. पर घर का गुज़ारा तीन प्राणियों के लिए एक की पेंशन पर चलन असंभव ही था, मेरी बचत के पैसे भी क्षीण होने लगे. खाने के प्रति भी इनका दोष पूर्ण रवैय्या इनके आने-जाने की अनियमितता के कारनानिश्चित था, जो खाना इन्होने नहीं खाया वह सब अगले दिन कचरे में गया. मुझे लगा की में स्वयं ही अपने पेंशन के पैसों को बर्बाद करने पर तुला हुआ हूँ, उनसे तो बात करने का मौका ही नहीं बनता था. फिर घर की साफ़-सफाई सिर्फ नौकरों से नहीं होती, हमारी एकता(बहू-रानी) को तो घर चलने में कोई रुझान ही नहीं था,और ज़रूरत भी क्या थी, पापा करतो रहें हैं! दोनों बेटा-बहू अपने कपड़े-जूते और सारी चीज़ों को यहाँ-वहां पटक देते और अगर वह वास्तु अगली जरूरत पर न मिली तो बाजार से तुरंत नई चीज़ आ जाती थी, में ही सब कुछ संभाल कर रखता. मेरे साथ तो इनका उठाना –बैठना तो धीरे-धीरे खतम ही हो गया ठौर मेरी ही घर में मेरी हस्ती एक नौकर से बढ़ कर नहीं थी. जब भी घर में होते तो ना जाने अपने कमरे में रह कर क्या करते थे, पर यह कभी न करते की चलो आज पापा से भी दो बात कर लें. कई दिन तो में यह सोच कर रहा की एक दिन शीघ्र ही उनकी सम्नाझ में यह बात आ जायेगी. समय को शायद ऐसा ही कुछ मंज़ूर था.

धीरे-धीरे बेटे-बहू और मेरे बीच की दूरी बढ़ती ही गई, मैं अपनी बुज़र्गियत की वजह से उनसे कुछ न कहता और मेरे मन का गुबार दिनों-दिन और भी प्रबल होता चला गया. कटुता यों बढ़ती रही और मुझे वे लोग भारी लगने लगे. चर्चा व्यर्थ है, पर हम्मारी दूरियां बेहद गंभीर हो चुकी थीं. अनाप-शनाप टीवी सेरिअल्स मैं में देखता था की द्वि-स्वरूपी स्त्रियाँ अपने घर को उजाड कर ही प्रसन्न होती हैं, मुझे एकता भी उन्ही स्त्रियों मैं एक नज़र आने लगी. मुझे लगा की वह पति के सम्मुख प्यार वाला रूप और मेरे सामने एक दूसरा कटु-स्वरुप धारण कर के रहती है. अपनी हर जीत मैं मुझे कुढ़ता देख कर मानो उसे आनंद आता और वोह खूब मूटा रही थी, पर पति के सामने वह मेरे दुःख से दुखी होने का नाटक कर रही थी. बेटे को तो मुझ से बात करने का समय ही न था और वह वही विचार धारण करलेता जो दिन-रात एकता उसे सुनती रहती थी. वह भी सोच रहा होगा की आखिर पापा को यह के हो गया है?

कभी सोचता होगा तो बेटे को भी लगता होगा की पापा यों ही आदतन परेशान रहते हैं, कुछ दिनों से उसके व्यव्हार में ऐसा ही देख रहा हूँ. उसको भी मेरे व्यव्हार में भी ऐसा ही कुछ प्रतीत होता होगा. यह गुबार आखिर कब तक शांत रहता, एक दिन वह फट ही गया और मेरे जीवन में सैलाब आ गया. बहुत रोना-धोना हुआ और चहुँ ओर एक गंभीर स्ताभ्ता ही दिखाई देती थी. दोनों बेटा-बहू अब घर में कम से कम समय व्यतीत करते, में भी अपने अक्रोश के वशीभूत अपने कमरे का दरवाज़ा बंद ही रखता था, मानो मेरी ओर से मेरी अप्रसन्नता का यही इज़हार था. एकता का मायका समीप ही था, बेटे के साथ वह भी सवेरे निकल जाती ओर रात्रि में न जाने कब लौट कर घर आते थे. मेरा घर जो होटल बन गया था अब होटल भी न रहा, एक रात्री निवास में परिवर्तित हो गया. दोनों ओर की नाराजगी ने दूरियों को ओर भी बढ़ा दिया, ओर यह फासले भी इतने बढ़ गए की इनको पाटना अब संभव नहीं लगता था. मन कहता था उनका अब यह घर त्याग कर कहीं और चला जाना उतना ही उचित है, जितना मेरी स्वर्गीय पत्नी को अपने नासूर से ग्रस्त शारीर को त्याग कर जाना था. में बंद दरवाज़े के पीछे आंसू बहता ओर विचरता किकी बच्चों के साथ मेरे रिश्ते को भी कैंसर लग गया है, ओर विच्छेद ही एकमात्र उपाय है.

एक दिन वे भी घर खाली कर के चले गए, घर में से जहाँ-तहां की चीज़े ले कर घर को और भी बुरी तरह सूना बना कर वे दोनों चले गए. इस वृधावस्था में वैसे ही साँसे मुश्किल से चलती हैं, अब समस्या और भी गहन करकर चले गए. में बहुत मायूस होकर रह गया.

बहुत डी ऐसे ही चलता रहा, एक दिन में अपने अंतर्द्वंद और घर दोनों को ताला लगा कर हरिद्वार चला आया. दीन-दुखियों को परमात्मा ही संभालते हैं.











२३ सितम्बर,२००६


हरिद्वार में मेमे एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले लिया. कई दिनों तक तक में विचारहीन हो हर-की-पैडी पर ही दिन गुजारता. इस से और कुछ हुआ हो,न हुआ हो, मेरी भगवान में आस्था बहुत प्रबल हो गई. कुछ साधू-संतों से भी परिचय हो गया. में स्वयं भी कुछ साधू ही हो चला था, भूक लगी तो कुछ खा लिया, वर्ना गंगाजी का अमृत पानी पीकर गुजर-बसर चलती थी. जैसे ह्रदय भाव शून्य था वैसे ही चेहरे की चमक भी प्रायः क्षीण हो गई, अब मुझे अपना स्वरुप ही पराया लगने लगा, पर, धीरे-धीरे अंदर की शान्ति लौट कर आ गई. दिन भर बिनाकिसी प्रयोजन के भटकने के बाद रात्री को में फ्लैट में आकार निढाल निंद्रा में डूब जाता, अगले दिन फिर यही दिनचर्र्या रहती.

एक दिन ऐसे ही घूमते-घूमते मेरी भेंट एक सतपुरुष से हो गई, बाद में पता चला कि उनका नाम था रवि प्रकाश. उनसे मिलकर मेरे मन-मस्तिष्क में जैसे सूर्योदय हो गया.

रविजी हर शाम को आकार गंगाघाट पर संध्या स्नान-पूजन करते,तदोपरांत वे भी मेरी ही तरह बड़ी तक यहाँ-वहां घात पर चहल-कदमी करते थे. फिर दिन ढले वहां गंगाजी की आरती होती थी, उसमे वे अवश्य ही उपस्थित रहते, मेरी ही भान्ति. पश्चात, वे भी वहीँ भोजन करते थे जहाँ मैं कभी-कभार जाता था. मैं उनकी यह गतिविधि कुछ दिनों से देख रहा था, शायद वे भी मुझे देख चुके थे ओर मेरे प्रति उनके मन में भी कुछ विचार उठे होंगे. एक दिन हम दोनों एक ही टेबल पर भोजन कर रहे थे. मैंने ही बात आरम्भ करी,”आपको मैं प्रायः सायंकाल गंगाजी मैं संध्या-स्नान से लेकर यहाँ भोजन करते देखता हूँ,शायद, दिन में आप कहीं और व्यस्त होते होंगे”. रविजी गंभीर स्वाभाव के थे, काफी देर खामोश रहकर बोले, ”हाँ..............”, फिर जैसे बात को उन्हों ने बीच में ही बंद करदी. सोचा बात को आगे चलाऊँ क्योंकि उनके चेहरे पर सौम्य और शांत भाव मुझे उनकी ओर आकर्षित करते थे. पुछा, ‘क्या आप हरिद्वार के ही वासी हैं?” अभी वे कोई उत्तेर देते, उससे पहले हमारी भोजन की थालियाँ हमारे आगे रखदी गईं. वे तुरंत ही थोडीसी भ्जाओं की शुध्धी हेतु प्रार्थना कर के चुप-चाप भोजन करने लगे, शायद उन्हें जोर की भूक लगी थी. में कनखियों से उन्हें भोजन करते देखता रहा,मुझे खाने की कोई विशेष ख्शुधा नहीं थी. मेरी भूख तो किसी का साथ ही खोज रही थी, और मुझे इनके चेहरेने आकर्षित किया हुआ था. यानिकि मुझे यह श्रीमान अच्छे लगते थे और में उनके साथ की कामना करता था. उनका कद-काठी बिकुल साधारण था, उज्जवल रंग, और एक सादा सफ़ेद कुरता ही उनका लिबास था. इसके आलावा कोई अन्य वस्त्र-आभूषण या मस्तक पर तिलक भी नहीं लगा हुआ था.

अरसा बीतता गया और सौभाग्यावाशेक अन्य दिन उनसे लगभग उसी स्थान पर दुबारा भेंट होगी. में पहले से ही बैठकर भोजन कर रहा था कि, वे आकर्मेरे विमुख कुर्सी पर बैठ गए. अभी मैं बात करने का विचार बना ही रहा था कि वे बोले, ”आपको उस दिनके बाद आज ही देखा है, आशा है कि आप स्वस्त्य्मय होंगे”. उनका कहना एक प्रकार से ठीक ही था क्यों कि एक मंदिर मैं शिव-पूजन का अनुष्ठान हो रहा था और मैं अधिक समय वहीँ बिताता था, सायंकाल का भोजन भी यदा-कदा वहीँ पर ही होजाता था. उनकी वाणी सुनकर मेरे अंदर कि खुशी मेरे मुख मंडल को व्याप्त कर गई. कुछ उतेजना के वशीभूत मैं बोला, ”जी, मंदिर कि गति-विधि के चलते कुछ समय से मैं गंगाघाट पर नहीं जा सका हूँ, कलसे फिर वही दिनचर्या रहेगी.” मेरा भोजन्समाप्त हो चुका था और उनकी थाली अभी आई नहीं थी, मैं उनको अपना परिचय देने लगा और वे उसी ख़ामोशी से सुनते रहे, बीच मैं न कोई प्रश्न,न कोई हूंकार. उनके भोजन उपरांत हम दोनों बहार आ गए और उन्हों ने अपना परिचय देना आरम्भ किया, “ मैं मुरादाबाद शहर को रहने वाला हूँ, और पिछले छह-सात महीनों से यहाँ निकट ही एक वृद्ध महिला आश्रम मैं सेवा करता हूँ. पास ही एक कमरे को किराए पर ले कर रहता हूँ.” वे फिर सहसा चुप्पी-साध गए, ज्यों उनके भण्डार कि सभी बातें खतम हो गईं थी, शायद उनके पास बोलों की कमी थी. हम कुछ देर यों ही खड़े रहे, न मेरा जानेका विचार था न उनकी ओर से प्रस्थान का कोई उपक्रम हुआ. सहसा वे ही बोले, अच्छा, मैं चलता हूँ.” और मुड कर चले गए.

उस रात को उन्हीं को लेकर मेरे मस्तिष्क में उहा-पोह जारी रहा. उनके कम बोलने का अंदाज़ और पर-सेवा का व्रत, साथ ही मेरी प्रति उनके मन मैं जागरूकता देख कर कुछ समझ मैं नहीं आता था. न चाह कर भी उनके भी मेर विचार उन्ही के इर्द-गिर्द घूमते रहे. मेरी समझ मैं यह नहीं आरहा था की मुरादाबाद से यहाँ आकार एक लाचार विधवाओं और अधिक उम्र की स्त्रीयों की सर्वभाव से सेवा क्यों कर रहा है? क्या मेरे लिए भी इसी प्रकार का परोपकारी जीवन ही उचित है? आखिर अकारण ही हरिद्वार मैं भटकते हुए मुझे भी डेढ़ महीना हो गया था, अगर मैं शुरू से ही किसी आश्रम मैं जा कर सेवा करता तो मेरेजीवन को एक दिशा और अधिक मानसिक संतोष प्राप्त होता. पल-पल मेरी मायूसी गहराती गई. विचार हुआ की अपने पुराने जीवन को भूलने और एक नयी आशा से जीवन-यापन करने का यही एक उत्तम साधन है. मैंने निश्चय किया की कल फिर उनसे मिलकर अपने जीवन-मार्ग दर्शन के विषय मे सलाह करूँगा.

एक दिनदिया सायंकाल जब मैंने उन्हें हर-की-पैडी पर स्नान-संध्या करते देखा तो सीधा वहीँ पर पहुँच गया. अभिवादन कर के मैं बोला” रविजी, आप अपने-परायों का दुःख-दर्द बांटते हैं,यदि आप उचित समझें तो मैं अपने विषय मैं कुछ मशवरा करके अपना जी हल्का करना चाहता हूँ.” वे जैसे मेरा आशय पहले से ही जानते थे, चूंकि वे अपनी क्रिया सम्पूर्ण कर चुके थे वे वहीँ पीदियों पर ही बैठ गए, मुझे भी बैठने का संकेत किया. चारों ओर तीर्थ-यात्रियों की भीड़ ओर कोलाहल था, कोई कोई व्यक्ति तो मेरे ओर उनके बीच की थोडीसी जगह मैं ही हो कर आगे बढ़ जाते, पर उनके मुख-मंडल पर साधुओं जैसी कान्ति चमक रही थी. कुछ असंयत स्वर ओर भाव से मैंने अपना पूरा दुखडा उनके सन्मुख रख दिया. जब मैं बोल रहा था तब वे बड़े ध्यान से मेरी हर बात को सुन रहे थे मुझे प्रतीत हुआ की अगर मैंने किसी के सामने अपनी ह्रदय-गाथा कही है, तो वह अकारण नहीं गई. समय अधिक हो चुका था और गंगा जी की आरती का समय हो रहा था. कुछ पल वे शांत रहे, मान गंभीरता से कुछ सोच रहे थे, फिर, बिना बोले वे खड़े हो गए और मेरी बालों मैं अपनी उँगलियाँ फेरते हुए वे आरती स्थल की ओर अग्रसर हो गए. मैं भी शांति-पूर्वक उनके पीछे-पीछे आरती के लिए चल पड़ा.

इसके बाद सप्ताह-दस दिन तक मुझे रविजी कहीं नहीं मिले. आस भरी मेरी आँखें उन्हें सुबह-शाम गंगा जी के तीर पर तलाशती रहीं

उनसे मेरी भेंट एक दिन रात्री भोज के बाद होटल के बहार हुई, मानो वे वहां खड़े मेरे बहार आने की राह जोह रहे थे. चेहरे से तो उनके कुछ भी नहीं ज्ञात होता था, वही शांत सौम्य भाव, मुख से भी वे कुछ न बोले, मुझे संकेत करके वे गंगाजी के घात की ओर चल दिए. मैं पीछे-पीछे हो लिया. वहां पहुँच कर वे एक पैडी पर बैठ गए, उनसे सम्मुख हो कर मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया, उत्तर मैं उन्होंने हाथ जोड़ दिए और मुझे बैठ जाने के लिए कहा. काफी देर तक वे मौन रहे मानो अपने विचारों को संयत कर रहे हों, मात्र गंगाजी की लहरों की कल-कल ध्वनि ही सुने देती रही. फिर सधे स्वर मैं बोले,”आपने जो विचार मेरे सन्मुख प्रस्तुत किये थे वे मैंने यहाँ तीन आश्रमों के परिचालकों के साथ विनमय किये, आपको अपने मन की शान्ति की आवश्यकता है अतः आप श्री आश्रम मैं पंडित राघवजी से मिललें. वहां पर एक पखवाड़े का शान्ति पाठ का अनुष्ठान १५ तारीख को होगा, उसके लिए मैंने आपका नाम लिखवा दिया है, आप वहां प्रातः पांच बजे अवश्य उपस्थित हो जाएँ. उसके बाद आप या तो अपने घर लौट जाएँ और गृहस्थ जीवन यापन करें, अथवा, मेरी तरह किसी आश्रम मैं सेवा कर सकते हैं.” फिर से इसी आशय के वचन कहते गए, मैं, मंत्र-मुग्ध सब सुनता रहा. वे इस विषय में मेरी सहमति नहीं मांग रहे थे, बल्कि अपने ही विनाम्ब्रा तौर पर एक आगया की तरह सब कह रहे थे. उनकी इतनी सारी बातों मैं किसी भी धर्म, सन्स्था अथवा व्यक्ति के बारे मैं कुछ न था, सब कुछ मेर ही हित और मानव सेवा के विषय मैं था. जो उन्होंने संज्ञाओं का प्रयोग किया था वे सब अबला नारियों, विधवाओं और समाज से तिरिस्कृत की हुई स्त्रीयों के बारे मैं था.

फिर काफी देर वे विचार-मग्न बैठे रहे, पुनः वे वहां से उठ कर, बिना कुछ ओर कहे चले गए. मेरा मस्तक श्रध्दा ओर उनकी भावनाओं के नीचे डब कर झुक गया. वहीँ बैठा मैं उनके हर शब्द के बारे मैं गूढता से विचार करता रहा, ठंडी हवा, गंगाजी का मधुर संगीत ओर उनके ये अमृतपूर्ण वाकया मुझे परम आनंद दे रहे थे. जब मैं अपने फ्लैट की ओर चला तो मझे जीवन की उधेड़-बुन का ज्यों हल मिल गया हो ओर मेरे मन मैं एक निर्मल ज्योति जागृत हो गई.

मैं उनके द्वारा बताये हुए शिवर मैं प्रत्येक दिन प्रातः पांच बजे से देर रात्री तक रहता था. सुबह-शाम वहां पूजा-आरती होती थी, फिर, वहां कई पहुंचे हुए साधू-संत व सम्माज के हेतु काम करने वाले भद्र लोग अपने विचार प्रकट करते थे ओर उनकी बातों पर रोचक प्रतिक्रिया के साथ वाद-विवाद होता था. मेरी भान्ति के वहां अन्य ३३ लोग ओर भी थे. मैंने वहांके संचालक से सांझी-रसोई मैं काम पकड़ लिया था. अब मैं सुबह ३ बजे से ही पहुंचक कर रसोई के सेवादारों के साथ मिलकर प्रातः भोज बनादेते ओर फिर सभ भजन-पूजन मैं भी उपस्थित रहता. अवकाश-काल मैं भी सेवार्थ रसोई मैं ही जा कर जो मुझसे बनता वह करता रहता था. कुछ तो संतों का आशीर्वाद, उनके वचन-आख्यान कुछ निष्काम रसोई मैं सेवा और बहुत सी थकावट को लेकर वह पखवाडा समाप्त हो गया. मुझे अपने मैं एक नया प्राणी प्रतीत होने लगा, मेरे मानसिक-घाव भी भर चले थे. श्री आश्रम के स्वामी राघवजी भी मुझ से प्रसन्न थे और उन्हों ने ही सुझाया की मैं आगे भी आश्रम की सभी चेष्टाओं मैं भाग ले सकता हूँ. यही इतने अरसे के अंतर्द्वंद को समाप्त करती हुई मेरी शान्ति थी.

मुझे पुनः रविजी से मिलने की चाह सताने लगी ओर मैं उनके नित्य स्थानों के चक्कर लगाने लगा. हर बार निराशा ही हाथ लगी,इस प्रकार ३-४ सप्ताह यों ही व्यतीत हो गए.



३ जनवरी २००७


अगली बार जब मैं रविजी से सन्मुख हुआ तो वे प्रसन्न चित नज़र आये. देखते ही पूछ बैठे, “ आप आज बड़े दिनों बाद मिले हैं, कहिये, सकुशल तो हैं?” मैंने अपनी रज़ा दर्शाने के लिए सर हिला दिया, मन कुछ द्रवित सा महसूस हो रहा था. वे ही पुनः बोले, “ क्या आप नॉएडा लौटने का कार्यक्रम बन रहे हैं, अथवा कुछ दिन और रुकना चाहेंगे?” मैंने उनको सब विस्तार से बता दिया की मैंने यहाँ पर एक फ्लैट किराए पर ले लिया है और उनकी कृपा से अब मैं यहीं रहने का विचार बना रहा हूँ. वैसे, इस से पहले मेरा यहाँ अधिक दिन रुकनेका कोई न कारण था न प्रयोजन. यहाँ हटात ही यह बात मेरे मुंह से निकल गई थी. चिर-परिचित मौन के बाद वे बोले, “ पहले आप यह निर्णय करलें की यहाँ रह कर आप क्या करना पसंद करेंगे, प्रातः सायं बिला वजह यों कितने समय विचरते रहेंगे”. मैंने तो कभी इस विषय मैं कोई चिंतन-मनन किया ही नहीं था. फिर हरिद्वार जैसे स्थान पर तो या तो लोग भक्ति भाव से आते हैं या फिर मेरे तरह अपनों से परेशान व्यक्ति आते हैं. मैं धर्म के प्रति सामान्य रूचि रखता हूँ, पर हर समयके लिए मेरे लिए असंभव ही लगता था, संसार से दूर जाने के लिए यह मेरा प्रथम प्रयास था, इस से पहले तो घर-बार, पत्नी-संतान सब कुछ ही सुखमय था. सम्माज मैं कुछ विशेष नहीं तो कुछ मान्यता तो थी ही, जब मैंने यहाँ फ्लैट लेने का मन बननाय था तब सोचा था की कुछ दिन बाद यहाँ से भी ऊब जाऊँगा और पुनः किसी भी मन से आ कर जैसे-तैसे नॉएडा मैं ही मृत्यु पर्यन्त रहूँगा. रविजी की कृपा, या तीर्थ का महत्व, और फिर पिछले कई महीनों की सरगर्मी अब मुझे कुछ और ही मार्ग दर्शा रहीं थी और मैं न चाह कर भी उधर की ओर अग्रसर हो रहा था. यहाँ रह कर मेर मानसिक घाव कुछ भर गए थे कुछ को मैं भुला बैठा था. अमूमन रूप से मेरी मन्ह-स्थिति अत्यंत शांत रहती थी. मेरा मन भी गंगा घाट पर श्रधालुओं की दिन्चार्र्या देख कर ही लगता था, गंगाजी की निर्मल धारा और उनकी लहरों की अठखेलियां मुझे सम्मोहित करती थीं. मंदिरों और पूजा-स्थलों पर हुझे भगवन का सानिध्य लगता था. जीवन के पूर्वकाल की अब इतनी व्यथा न होती. अगले कुछ दिनोंमें मैंने सुनिश्चित किया की रविजी की तरह मैं भी यहीं रहूँ और किसी आश्रम मैं सेवा करूं तो यह नव-जीवन सफल हो जायगे. पुराने समय के प्रति कोई आकर्षण भी तो नहीं था. यहाँ कई संस्थान थे जो समाज से तिरिस्कृत नारियों और बूढ़े लोगों के लिए बने थे. कहीं रोगियों और गरीब असहाय व्यक्तियों की देख-रेख हेतु आश्रम थे तो कहीं वृध्दा और पतित नारियों के लिए आश्रम थे. इन्ही सब मैं से रविजी भी एक आश्रम मैं निशुल्क सेवा करते थे. कुछ इसी प्रकार की विचार मैंने व्यक्त किये.

चूंकि, इससे पहले मैंने कुछ भी गंभीरता से नहीं सोचा था इस लिए मैं रविजी से प्रश्न कर बैठा, “ आप ही बताइये की मेरे लिए क्या उचित है और क्या सुलभ है, मेरे मन मैं पहले से तो बहुत कम, पर इस विषय मई द्विविधा ही है.” वे अभी चुप हिते, मैंने दुबारा प्रश्न किया, “आप की समझ मैं क्या मेरे लिए कोई उप्य्कता स्थान मिलेगा?” वे बोले, “अच्छा विचार करते हैं”


२१ फरवरी २००७.

सर्दियों की ठिठुरन पहले से कुछ कम हो गई थी और अपने पूर्व ढर्रे पर धीरे धीर अग्रसर हो गया.

नारी आश्रम, हरिद्वार शहर से कोई २ किलोमीटर की दूरी पर था. इस आश्रम के संचालक थे स्वामी रामानंदजी, ये ही इस समस्त आश्रम मैं रहने वाले एकमात्र पुरुष थे, अन्य परिचालिकएं सभी स्त्रीयां ही थीं. स्वामी रामानंदजी बेहद गंभीर स्वाभाव के थे, बहुत कम बोलते थे और बहुत कम ही अपने कक्ष के अलावा कहीं दृष्टिगोचर होते थे. उनकी उम्र का अंदाज़ लगाना कठिन था, कभी लगते की वे ८०-८५ वर्ष के होंगे पर उनकी चपलता को देख कर प्रतीत होता की वे संभवतः ५५-६० वर्ष के होंगे. उनके कमरे मैं प्रवेश करते ही एक काठ की विशाल शिव-मूर्ती थी. मूर्ती के पास ही गद्दों पर बिछी चांदनी के ऊपर पुराने ज़माने का नीचा सा एक डेस्क, एक मसनद और एक बड़ी सी थाली मैं दीप-धूप आदि प्रजज्वलित रहती. सामने की दीवार पर एक बड़ी पुरानी सरस्वती देवी का चित्र लटका रहता था. सिवाय इसके वह कमरा बिलकुल सादगी और स्वच्छता का प्रमाण था.

रविजी जैसे दो-चार और पुरुष स्टाफ-रूप मैं थे और कुछ सफाई-रसोई के लिए भी पुरुष आते थे, ये सभी यहाँ वर्षों से कार्यरत थे वे बिना किसी से अधिक बात-चीत किये अपना-अपना काम करते थे. सभी पुरुष आश्रम छोड़ कर ३ बजे अपराहन तक निकल जाते थे. अन्य महिला स्टाफ सभी आश्रम मैं ही रहती थीं और, मेरे विचारसे किसी का भी कोई परिवार न था. मुख्य-द्वार पर ताला लग जाता और उसके अंतर कोई आवा-गमन नहीं होता था. जहाँ आश्रम-निवासी स्त्रीयां रहती थीं, वे कमरे सादगी-पूर्ण ढंग से रखे जाते थे, हर कमरे मैं बिजली का एक पंखा और एक तुबे लाइट लगी थी. कमरे मैं एक टेबल, एक कुर्सी और एक शीशा जडित अलमारी के अतिरिक्त कोई अन्य फर्नीचर न था. बहार वरांडे मैमेक कोने में पानी के घड़े-सुराहियाँ राखी थी तो दूसरे कौने में शौचालय था. आहते के बीच में एक मंदिर था जिसे बहुत सुरुचि से सजा कर रखा जाता था. उससे आगे हवादार ४-५ कमरे थे जहाँ पर सभी स्त्रीयानापने को किसी न किसी रूप से व्यस्त रखती थीं. कहीं पर बुनाई की मशीनें थीं तो कहीं पर दरी बुनने की खत्ती लगी थी. एक कमरे में बेतरतीब पुस्तकों के ढेर लगे थे, एक यही स्थान था जोअरुची से रखा प्रतीत होता था.

यहाँ आश्रम निवासी स्त्रीयों को माता संबोधन करके ही बुलाया जाता और वे भी आपस में एक दूसरी के नाम के साथ माता शब्द जोड़कर ही पुकारती. पुरुष स्वयं सेवक प्रातः ८ बजे उपस्थित होते और दफ्तर आदि के काम-काज संभालते थे, इनके कार्यस्थल आश्रम से प्रथक थे और वैसे भी इन्हें स्वामीजी के कमरे से आगे जाने की अनुमति न थी, वैसे भी आश्रम जाने का एकमात्र मार्ग स्वामीजी के कमरे से ही हो कर जाता था, कई लोगों को इस कमरे के आगे की गति-विधि के विषय में कुछ नहीं पता था. यदि कभी किसी राज-मिस्त्री को अंदर काम होता तो रविजी अथवा अन्य स्टाफ की माता की देख-रेख में ही काम होता.

यूँ तो हरिद्वार में स्वयं-सेवकों की कमी नहीं है, पर रविजी के कहने से स्वामीजी ने कृपा कर के मुझे पुस्तकालय की देख-रेख की अनुमति प्रदान कर दी. में दंग था की इतनी सारी पुस्तकें यहाँ आई कैसे? पता चला की कई लोग दान-दाख्शिना के साथ धार्मिक व घरेलु किस्म की पुस्तकें भी दान करते थे. यहाँ की माताएं अधिक पढ़ी लिखी न थी, अतः पुस्तकों से उनका कोई प्रयोजन नहीं रहता था. मैंने देखा की कुछ पुस्तकें बिलकुल दुर्लभ थीं, तो अन्य कई यहाँ मात्र इस लिए थीं की उनके मालिकों की मृत्यु के पश्चात घरवालों ने उनकी अन्य सभ वस्तुओं के साथ बहुमूल्य पुस्तकें भी दान करदी थीं. मुझे उन पुस्तकों की सूची बनाते-बनाते ४ महीनों से ऊपर लग गए. मैंने उनके लिए अपने पैसों से ही अलमारिया खरीदी और कुछ टेबल आदि की भी व्यवस्था करी,फिर भी बहुत काम शेष था. वैसे, बड़े-बड़े टेबल और आराम-कुर्सियां भी दान स्वरुप यहाँ पहले से ही उपलब्ध थीं, कई हिंदी-इंग्लिश के अखबार, पत्रिकाएँ ओर धार्मिक खबर्नामे भी दान देने वालों की ओर से आते थे. स्वामीजी ने आश्रम वासी महिलाओं को पहले ही पुस्तकालय को सरस्वती जयंती के दिन खोलने का आश्वासन दे दिया था अतः यह विभाग उस दिन बड़ी पूजा-भक्ति के साथ खोल दिया गया. शुरू में तो बहुत कम माताएं यहाँ आती थी, पर अवकाश के समय उनकी संख्या काफी बढ़ गई,मुझे भी अपने काम से सुकून मिला, और अधिक अच्छा करने का बढ़ावा मिला. धीरे-धीर मैं अपने काम में व्यस्त राम गया और उधर रविजी से भी अब कम ही भेंट होती थी, आश्रम मैं ही राम-राम होजाती थी.

रविजी यहाँ पर रसोई आदि की व्यवस्था करते थे,सो वे हर समय बहुत ही व्यस्त रहते थे, अनाज,फल, सब्जी-मसाले सबकुछ उनके विभाग के अंतर्गत था. किस दिन, किस समय क्या बनेगा उसका भी नियोजन ये ही करते थे.कभी अगर समय मिलता तो चाय के समय कुछ देर के लिए आजाते ,पर उनकी कम बोलने की आदत की वजह से हमारे बीच मैं बातों का आदान-प्रदान लगभग शून्य था. अन्य पुरुषों की भांति हम लोगों को भी ३ बजे आश्रम छोड़ना पड़ता था, पर वे स्वामीजी के कमरे मैं जा कर उनसे आश्रम सम्बंधित सलाह-मशवरा करते थे. चूंकि वे यहाँ बहुत दिनों से कार्यरत थे तो मेरी नज़र मैं वे ही यहाँ के द्वितीय अधिकारी थे. मैं अकेला ही २ किलोमीटर की दूरी चल कर अपने कमरे मैं जा कर कुछ विश्राम करता.

रसोई और भोजन कक्ष ही ऐसी जगह थी जहाँ महिला स्टाफ की माताएं सायन ८ बजे तक रहती थीं. ये सभी यहाँ की स्थायी कर्मचारी थीं और इन्हें महीने-के-महीने कुछ रकम भी मिलती थी. हालांकि, बड़ी सी रसोई और भोजन कक्ष मुक्य आश्रम का ही हिस्सा थे, पैर स्वामीजी ने सीधे रस्ते को बंद कर दोनों के प्रवेश भिन्न-भिन्न कर दिए थे. रसोई और कक्ष के बीच मैं छोटी-छोटी दो खिर्कियाँ थीं और वहीँ से परोसा हुआ भोजन कक्ष मैं परोसा जाता था. यहीं पर रविजी के अतिरिक्त, स्टोर, रसोई, सफाई आदि के लिए कुछ पुरुष भी प्रातः ८ से ले कर सायन ३ बजे तक काम करते थे. इन सभी पर रविजी की पैनी द्रिष्टि रहती, की काम काज के अतिरिक्त वे किसी और माता से संपर्क न रखें.आश्रम-वासी महिलाऐं भी यहाँ श्रम-दान स्वरुप हाथ बटा कर सहयता करती थीं, ये प्रति दिन बदल जाती, क्योंकि एक सप्ताह मैं कोई भी माता मात्र एक ही दिन यहाँ योग-दान दे सकती थी, और इसी प्रकार ये विभाग अति सफलता से चलता था. जो महिलाऐं यहाँ स्टाफ की ओर से नियुक्त थीं वे स्थानीय माताओं के बर्बर ही थीं, पर अनौपचारिक तौर पर रविजी के तौर पर ही देखीं जाती. क्योंकि इनकी ड्यूटी सायन ८ बजे तक ही होती, इस लिए क्रम-पूर्वक दो स्टाफ महिलाओं को रात के लिए रुकना पड़ता, यह ही दोनों सुबह का चाय-नाश्ता भी तैयार करती-परोसती थीं.

ऐसा भी नहीं था कि आश्रम कि माताओं को कैदखाने जैसी स्थिति मैं रखा जाता हो. सप्ताह मैं एक दिन ४-५ माताओं का ग्रुप बना कर उन्हें शहर मैं कहीं भी जाने कि आज़ादी थी. उस दिन वे अपनी निजी उपयोग कि वस्तुएँ, अन्य बैंक-पोस्ट ऑफिस का काम-काज, फ़िल्में देखना आदि कार्यक्रम किया करती थीं. आश्रम कि तरफ से भी सप्ताह-दस दिन में मौके-बेमौके बड़े मंदिरों कि यात्रा-पूजा या फिर किसी धार्मिक प्रक्रिया का अनुष्ठान-समापन के आयोजन पर ले जाया जाता था. महीने मैं एक बार, २-३ दिनों के लिए अगर किसी माता का कोई रिश्तेदार हो तो उनको बहार रहने कि अनुमति देदी जाती थी, पर ऐसा न के बराबर ही होता क्योंकि माताएं अपने काम मैं इतनी राम गई थीं कि वे स्वयं ही बहार रहना पसंद नहीं करती. स्वामीजी प्रतिदिन, प्रातः-सायन स्वयं ही संत वचनों का आख्यान करते थे, किसी उपनिषद-पुराण के विषय मैं क्रमवार उनकी वाणी सुनने के लिए सभी उत्सुक रहती थीं और उसको किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहती. कभी-कभार बहार से भी साधू-संत अथवा अन्य वाचक आ कर ज्ञान उपदेश देते थे. दिन भर सभी मातें कुछ न कुछ करती रहती थीं, चाहे वह साफ़-सफाई से ताल्लुक रखती हो, या फिर हस्तकला से सम्बंधित तेल-साबुन उद्योग या ऐसा ही कुछ कामकाम हो और कुछ भी नहीं तो पुस्तकालय मैं समय व्यतीत करती थीं. अधिक उम्र की माताएं धर्म-कर्म मैं रत रहती, अन्य छोटी उम्र की माताएं हिस्वयाम्सेवा और हस्तकला मैं प्रतीत होती. इन सबके अतिरिक्त अपने खाली समय मैं वे अपने सुख-दुःख की दास्ताने एक दूसरे को सुना कर शांतमय जीवन यापन करती.

मुझे यहाँ काम करते-करते आठ महीनों से ऊपर समय होगया था. यहाँ की शांत-सौम्य शैली से बंधकर मेरा समय अच्छा व्यतीत होता और मन में बिलकुल अशांति-द्विविधा शेष न रह गई थी. क्योंकि प्रायः सभी पुरुष स्वयं-सेवा करते थे वे न तो आश्रम में किसी से बिना कारण बात करते न आश्रम के बहार एक दूसरे से मिलते–जुलते. महिला स्टाफ का भी शायद ऐसा ही चलन था, पर वे सभी माताओं को बहुत सम्मान आदर से संबोधन करती, इनमे कोई २० प्रतिशत मासिक वेतन पर काम करती. यह सभी अपने काम को रुझान-लगन से करती, उनसे कुछ कहने की किसी को भी आवश्यकता न होती. आश्रम चलाने के हेतु दान-धर्मं से ही पैसा आता था. स्वामीजी की कुछ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं, उनकी रोयल्टी आती थी. कुछ छोटे-मोटे खर्चे हमलोग भी अपनी ओर से करते. कुल मिला कर यहाँ धन-धन्य की कोई कमी न थी.

हमारे पुस्तकालय का हॉल बहुत बार था, उसमे तीन ओर मैंने बड़ी-छोटी अलमारियों में विभिन्न पुस्तकों को करीने से संवार कर माय पुस्तक सूची के रख दिया था. इस संसथान मैं एक मैं ही कम्पूटर की जानकारी रखता था, और मैंने अपना लैपटॉप-प्रिंटर भी ला कर यहाँ रख दिया था. इसी की सहायता से सब कुछ संभव हुआ. चौथी ओर मुख्य द्वार था, उसकी एक ओर मेरा अपना बार सा टेबल एक लकड़ी के तखत के ऊपर रखा था. दरवाज़े की दूसरी ओर खबर-कागज़, पत्रिकाएँ ओर कुछ धर्म सम्बंधित किताबें थीं. माताएं इसी स्थान पर आकार पन्ने उलटा करती थीं. मैं बाजार से ला कर कुछ भोजन, सिलाई-कढाई संबंदी रुचिकर, बड़ी-बड़ी रंगीन चित्रों वाली पत्रिकाएं भी रखता था, यह सभी सर्वाधिक रुचिकर प्रतीत होती थीं. मेरा पुस्तकालय का काम प्रायः समाप्त हो गया था इसलिए यदि कोई माता मुझसे कुछ पूछती थी तो मैं उस बात को बारे विस्तार से उनके संम्मुख रखता, इस कारण, धीरे-धीरे मुझे सब माताएं गुरूजी कह कर संबोधन करती. कभी कभी किसी के लिए मैं लैपटॉप पर पत्र आदि भी लिख देता, अन्यतः किसी-किसी का पत्र पढ़ कर उसके विचार भी बता देताथा. समाचारपत्र विभाग मैं बीच मैं कुछ सीढ़ी पीठ वाली कुर्सिय भी थी जहाँ बैठ कर कभी कभी माताएं अपना लिखना-पढ़ना करती थीं. कुछ ही दिनों मैं यहाँ अधिकांश महिलाएं दिन मैं एक बार तो आती ही थीं, कुछ भोजन के उपरान्त भी आने लगी. यद्यपि कोई भी मात १० दिनों के लिए कोई भी पुस्तक ले जा सकती थी, पर यहाँ की सुविधा देख कर सब यहीं अपना रिक्त समय व्यतीत करतीं. कई पुस्तकें, जो दान मैं मिलीं थीं कोरी ही रह जाती क्यों की उनमे से कई उस समय की होंगी जब मेरा भी जनम नहीं हुआ था, इस कारण वे सम “अनमोल” शीर्षक अलमारी मैं स्थान पाती थी. मेरे निश्चय था की हर माह मैं कम-से-कम १०००-१५०० रूपए की पुस्तके अपनी पेंशन से खर्च कर के यहाँ रखूंगा, इस धन से मैं हिंदी के नए-नए उपन्यास रखता जिनमें सभी की विशेष रूचि रहती. मैंने अपने कई मित्रों को भी पत्र के माध्यम से अपनी पुरानी पुस्तक-पत्रिकाएँ यहाँ उपलब्ध करने हेतु पत्र लिखे थे, सो उन लोगों ने भी अच्छी सहायता करी. नागरिक पुस्तकालय मैं भी संपर्क किया व वहां आश्रम की वे पुस्तके बिजवा दीं जिन्हें यहाँ कोई नहीं पढता था और बदले मैं वे हमारे पुस्तकालय को एक सप्ताह पुरानी पत्रिकाएँ,व अपनी वे पुस्तकें जो कई बार पाठक लेजा चुके थे देदेते थे. इस से हम्मारी काफी प्रतिष्ठा बरी और स्वामीजी ने एक सम्मेप कबाल-आश्रम के बच्चों को भी पुस्तकालय का सदुपियोग करने की अनुमति देदी. शायद माताएं ,बच्चों को देख कर प्रसन्न होती थीं इसलिए वे अपनी और से इन बालकों को खाने-पीने के लिया कुछ-न-कुछ देती रहतीं.

दिन बीतते रहे और मैं काम मैं पूरी तरह से रम चूका था. मैं अपने रिक्त समय मैं सभी की सहायता करता था, जिसके कारण मेरी सभी लोगों से घनिष्टता हो गई, विशेष रूप से रविजी तो मुझे बहुत सम्मान देते थे, मैं भी उनके कई काम लैपटॉप पर आनन-फंनन मैं कर देता. कई बार काम को ले कर वे मेरे फ्लैट पर ही आजाते. अब वे उदार तो वैसे ही दीखते थे, पर अब वे मेरे साथ सहज ही वार्तालाप कर लेते, उन्होंने मेरे घर-परिवार के बारे मैं सभी जान लिया था, अक्सर मेरे बच्चों के विषय मैं ऐसे पूछते थे जैसे उन्कभी कोई रिश्ता हो. उनके बारे मेंमेरी समझ सीमित थी, कि वे हरिद्वार मैं एक बहुत छोटे से कमरे में किराये पर रहते थे, यहाँ वे शौचालय और स्नानागार दो अन्य किरायेदारों के साथ साझा करते. यहाँ आने से पूर्व वे मुरादाबाद मैं किसी सरकारी महकमे से सेवा-निवृत हुए थे. उन्होंने पारिवारिक कलह-कलेश के चलते कभी विवाह नहीं किया. उनके पिता के देहांत के बाद ये झगड़े बहुत बढ़ गए थे और इसके चलते उन्होंने सभी से मुंह मोड़ लिया था, किसी भी स्वजन के विषय मैं कोई भी वार्ता करने से वे सदा ही दूरी रखते. उनका इस आश्रम से कोई १५ वर्षों से सम्बन्ध था पर पूरेसमय के लिए जुड़े हुए अधिक समय नहीं हुआ था, अपनी इस लगन कि वजह से वे गुरूजी के लिए भी सम्माननीय थे. उनकी आय पेंशन के अतिरिक्त कुछ फिक्स्ड डिपोसिट से होती, पर यह मुश्किल से एक व्यक्ति के लिए महीने के लिए मुश्किल से पर्याप्त होती.

मैं उनसे अनुरोध करता कि आप यहाँ मेरे साथ फ्लैट मैं रहें क्यों कि इस मैं तीन कमरों के अतिरिक्त दो शौचालय, रसोई, वरांडे आदि थे, जो हम दोनों के लिए पर्याप्त होते. बहुत विचार करने के बाद वे मान गए और एक दिन जाकर हम उनका सारा सामन यहाँ ले आये. वे अपनी ओर से जरूरत की सारी चीज़ों पर व्यय करते क्योंकि मैं उनसे कोई पैसे नहीं लेता. फिरभी उनका अधिकतर समय आश्रम और गंगाजी के तट पर ही बीतता था. कमरे मैं भी वे या तो कुछ लिखते रहते या फिर कुछ पढ़ते रहते, हमारे बीच मैं यहाँ-वहां की बातें यदा-कदा ही होती.

रविजी ७० की आयु पूरी कर्चुके थे, पर शारीरिक रूप से वे ५०-५५ के लगते. वे न तो चश्मे का प्रयोग करते न उनके श्रवण शक्ति मैं कुछ कमी दीखती. मेरी तरह वे न तो रक्त-चाप औरमधुमेह की गोलीयां खाते न उनमे कोई और बीमारी नज़र आती. जहाँ भी उन्हें जाना होता, वे सदा पैदल ही दूरी तय करते. एक तरहसे वे सब कुछ त्याग कर साधू जीवन अपना चुके थे. जितना मैंने बताया, उससे अधिक उन्होंने अपने विषय मैं कभी नहीं बताया. आश्रम के अन्य सहयोगियों को भी इससे अधिक नहीं पता था. जिज्ञासा-वश अगर मैं कुछ पूछ बैठता तो वे आसानी से विमुख हो जाते.

मैं उनसे कतिपय विपरीत था. मैंने फ्लैट के अतिरिक्त कार,फोन, संगीत के लिए सिस्टम-टीवी आदि भी लगा रखे थे. अपने नॉएडा वाले दोस्तों से भी संपर्क मैं रहता और यहाँ हरिद्वार मैं भी कुछ मेरे मित्र बन गए थे. मुझे कभी-कभार होटल-रेस्टोरंट का भी शौक था. अभी मेरा नॉएडा वाला फ्लैट भी मेरे नियंत्रण मैं था. एक वर्ष से यहाँ रहने के बादभी मेरी जीवन चर्र्या निजी रूप से वही थी. ६० वर्षों की आयु में मैं रविजी से बहुत छोटा था. मेरे मन मैं कोई विषय-आसक्ति नहीं पैदा हुई थी. मेरा पाठ-पठन कोई रूचि नहीं होती. अवकाश के दिन मैं प्रायः देहरादून या कहीं और निकल जाता. अपने बैंक व कुछ अन्य कार्यवश कभी-कभार मैं दिल्ली-नॉएडा भी जाता. मैं अन्य सभी आश्रम के स्वयं सेवकों से भी भिन्न था, कह सकते हैं कि उनके सम्मुख मैं धनवानों कि श्रेणी मैं आता. मैंने जीवन कई सुख पाए, एक पत्नी से विछोह का दुःख और उसके बाद का एकाकीपन ही मुझे यहाँ खींच कर ले आया था. अतः, अवकाश के समय मैं एक सेवा-निवृत कर्नल कि ही भांति का जीवन बिताना पसंद करता, इन्टरनेट,फेसबुक आदि की ओर मेरा काफी रुझान था. अन्य लोगो कि तरह मैं कुर्ते-पजामे मैं सिर्फ आश्रम के सम्बन्ध में ही रहता, अन्य सभी समय कमीज-पतलून ही मुझे पसंद थीं. गहन रूप से भी देखें तो मेरे सभी मित्र पूरी तरह गृहस्थ जीवन बिता रहे ठौर उनसे मिलते समय मुझे यह न स्मरण रहता की में आश्रम में सेवा पिछले एक वर्ष से कर रहा हूँ. द्विविधा पूर्ण तो नहीं, आप कह सकते हैं कि में दोहरा जीवन जी रहा था. जैसे निजी जीवन में कोई कमी न थी उसी प्रकार आश्रम में भी मुझे भर-पूर सम्मान मिलता.


१२ जून, २००८


एक समयपर मैंने देखा कि रविजी कुछ विशेष ही अप्रसन्न और चिंतित सलग रहे थे. उनका शांत और गंभीर स्वरुप जाने कहाँ चला गया था. मेर बहुत पूछने पर उन्होंने आश्रम वासी किसी महिला का जिक्र किया. यह महिला उनके साथ आश्रम का स्टोर देखतीं थीं, उस वक्त वे उस महिला का वर्णन “देवी” अथवा “बहन” के नाम से कर रहे थे. उनकी कोई ऐसी बिमारी थी जिसके कारण रवि जी अति द्रवित हो गए थे. जब मैंने बहुत जोर दिया तो इतना ही बताया कि वे बहन केंसर से पीड़ित हैं और वे भी उन्ही के शहर, मुरादाबाद, की ही रहने वाली थीं. उस समय तो इस बातको लेकर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, पर चूंकि मेरी पत्नी की मृत्यु भी इसी बीमारी से ही हुई थी, मेरा इस बात की ओर मन बरबस ही चला गया. मैंने अपनी पत्नी को तिल-तिल करके इस नासूर से पहले लड़ते हुए फिर हारते हुए देखा था. वे सारे दिन मेरी आँखों के सामने से एक चल-चित्र की भांति निकल गए. में स्वयं भी अति दुखी हो गया. मुझे बड़ी हैरानी हुई की आज तक उन्होंने कभी अपने किसी भी सगे-सम्बन्धी या मित्र का नाम नहीं लिया था, फिर आज यह सिर्फ इसलिए परेशान थे की आश्रम की एक महिला, जो की इन्हीं के शहर में कहीं निवास करती थी, उसे एक भयानक बीमारी ने जकड लिया है.

उस के बाद में कई अटकलें लगता रहा, यह महिला, सिर्फ मुरादाबाद से होने के कारणसे इनसे किस किस रिश्ते में हो सकती है. केंसर के भी कई प्रकार होते हैं, कई श्रेणियाँ होती हैं. अंततोगत्वा, उन महिला की क्या उम्र होगी और इस बीमारी के कारण उनके जीवन को कितना खतरा है. क्या उन्हें पहले से अथवा पहले कभी भी यह बीमारी हुई थी? में इस लिए अति-चिंतित न था की रविजी चिंतित हैं, मैं इस लिए परेशान था की मैंने बीमार की दुर्गति कैसे होती है देखा हुआ था, फिर इसके उपचार में धन भी बिना हिसाब के व्यय होता है. क्या उन महिला के पास, अथवा आश्रम के पास इतना धन है की वे इनका उपचार करा सकें. मुझे लगा की यहाँ हरिद्वार में,या फिर मुरादाबाद में भी इनका कोई इलाज नहीं कर पायेगा, तो क्या कहीं और रख कर इनकी तीमारदारी संभव हो सकेगी. मन में आया की मेरे नॉएडा स्थित घर में तो कोई रहता नहीं है, अगर रविजी चाहें तो वहां रह कर इन का उपचार करवा सकते हैं. सोच, की उनके संम्मुख यह प्रस्ताव में रख दूं. पर रविजी तो अत्यंत गंभीर स्वाभाव के थे और बहुत कम बोलते थे, में भी प्रायः इसी कारण से उनसे बहुत कम ही बोलता था. अधिकतर सांसारिक विषयों में वे कोई रूचि न रखते, और कभी ऐसा विषय हो जाता तो वे अन्मंसक से हो कर, हाँ-हूँ में ही उत्तर देते थे. हां, यदि विषय हरिद्वार, भक्ति, सेवा, आश्रम आदि के विषय में हो तब वे कुछ गर्म-जोशी दिखाते थे. बेबस, मुझे हमारे बीच की बातों को इन्ही विषयों तक सीमित रखना पड़ता, अब प्रश्न यह था की क्या वे अपने इस दर्द में मुझे सम्मिलित होने देंगें? अगर में अपना प्रस्ताव रखूँ तो क्या वे इस पर चर्चा करेंगे?

एक दिन हम भोजन करके फ्लैट पर लौट रहे थे, मैंने बातों ही बातों रविजी से उनके आश्रम में भोजनालय के सञ्चालन के विषय में कोई प्रश्न पुछा था. यह विषय भी उनके दिल के समीप और मनभावन था, सो बड़े विस्तार में उसके विषय में बताने लगे. इसके बाद जब भंडारणगृह पर चर्चा आई तो उन्होंने दो बार ‘बहन’ शब्द का प्रयोग किया. अधिकतर हम सभी ‘माता’ शब्द का प्रयोग करते, इस हेतु मुझे यह थोड़ा अजीब लगा. मैंने उन्हें टोका, ‘जब आश्रम की महिलाएं आपस में बाबात करती हैं तो एक दूसरे को ‘बहन’ के संबोधन से ही पुकारती हैं, और जब कोई अन्य उनके विषय में कुछ कहता है तो नाम के साथ ‘देवी’ अथवा ‘माता’ शब्द जोड़ कर ही कहता है. क्या कारण है की आप इन महिला के लिए ‘बहन’ शब्द का प्रयोग करते हैं?’ वे अचकचा गए क्योंकि मेरे कथन में सत्य था. अब पता नहीं की उन्होंने दिल की बात बताई या यों ही झेंप मिटने के लिए कहा, ‘हमवतन होने के कारण ही मैंने उन्हें ‘बहन’ संबोधन दिया, अन्यथा में सर्वदा उन्हें ‘देवी’ शब्द से ही पुकारता हूँ.” मैंने आगे बात से बात निकाली की शायद उनके जीवन के विषय में कुछ और भी पता चल सके, मैंने उसी सरलता से पूछा, ” क्या यह माता और आप एक ही गली-मोहल्ले के वासी थे?” वे कोई उत्तर नहीं देना चाहते थे, सो योंही मार्ग पर द्रिष्टि गढ़ाए कदम भरते रहे. उनकी इसी आदत से में अति अप्रसन्न हो जाता था. खीज कर मैंने अपना प्रश्न पुनः दोहराया तो वे जैसे अत्तेत के स्वप्न से यकायक जागे हों, रास्ते पर आँखें गढ़ाए हुए ही बहुत धीमे स्वर में बोले ,”हाँ”.

मेरी जिज्ञासा बढ़ी, बोला,

“ आपतो यहाँ एक दशक से भी ऊपर से हैं,तो क्या यह माता आपके बाद यहाँ आयीं?”

“सरोज देवी तो यहाँ तीन-चार वर्ष पूर्व ही आयीं थीं और तब ही से वे ही भंडारगृह का संचालन करती हैं’ यह कह कर उन्होंने सोचा होगा की बात समाप्त हुई, पर मैंने पुनः प्रश्न किया.

“भाई जी अगर वे बाद में आयीं हैं तो अवश्य ही आपका ही सन्दर्भ ले कर आयीं होंगी” अब वे मुझे ऐसे देकने लगे , मानो मैंने उनकी कोई चोरी पकड़ ली हो. कुछ देर रुक कर वे बोले, ”लंबी सी कहानी दुःख-यातना भरी कहानी है, क्यों की अपने माता-पिता की एक हादसे में मृत्यु होजाने के बाद उन्होंने ही अपने छः भाई-बहनों को पाल-पोस कर योग्य बनाया, और इसीके चलता उन्होंने स्वयं विवाह भी नहीं किया. उनके सभी भाई-बहन अपने-अपने काम से यहाँ-वहां, देश-विदेश में चले गे और यह अकेली रह गईं. इनका एकाकीपन यों भी कटोचता की कोई भी बहन-भाई न तो यहाँ आता न कभी अपने समीप बुलाता. दिनों-दिन यह बहुत परेशान रहती, फिर इनका स्वास्थ्य भी गिरता ही गया, मेरे ही आग्रह करने से वे मुरादाबाद वाले घर को बंद करके यहाँ आई हैं.”

वे पुनः बोले, ”उनका और हमारा घर आमने-सामने थे, इसी कारण, बचपन से ही हमारे बीच भाई=बहन का रिश्ता बन गया. मैंने सोचा कि में अपनी बेसहारा बहन को इस प्रकार नहीं छोड़ सकता तो क्या,मैं उन्हें आश्रम में लाकर उनकी सेवा तो कर ही सकता हूँ, यही सोच कर मैंने ऐसा कदम उठाया, अब मुझे प्रसन्नता होती है के वे यहाँ सुख से हैं और मेरी आँखों के सामने भी.” चलते-चलते हम फ्लैट पर पहुँच गए थे सो यह चर्चा यहीं समाप्त हो गई.

बात समझ में आने लगी, आज के ज़मानों में कोई अधिकतर युवा भाई-बहनें अपने घर में वयोवृद्ध बंधू-बांधवों को कम ही रखते हैं, वे यह कतई भूल जाते हैं कि ऐसे सम्बन्धी ने उनके लिये अपना समस्त स्वार्थ निछावर कर दियाऔर किसी प्रकार उन्हें पढ़ा-लिखा कर किसी काबिल बनाया. यह बात इस लिए मुझे अधिक-धिक् परेशान कर रही थी कि कुछ ऐसी ही तो मेरी कहानी भी थी. मुझे भी जबरन सब कुछ त्यागना पड़ा और विदेश में रहकर साधुओं का सा जीवन यापन करना पड़ा, अन्यथा, हमने भी अपनी ओर से कोई कसार नहीं छोड़ी थी. इन माता के साथ भी अन्याय ही हुआ, क्योंकि ये ही बाकी बहन-भाइयों कि माँ, बाप,और सभी कुछ बनी, अपनी सुध भूल कर वे सारे काल अपने परिवार का पालन करती रहीं, और अंत में क्या मिला? दुःख, दर्द, शर्म, असंतोष , यही सब कुछ. मुझे आज-कल के नवयुवकों पर क्रोध आने लगा, मेरा मन अति खिन्न रहने लगा. कुछ दिन तो चुप्पी साध ली, पर एक दिन यह बाँध टूटना ही था.

मैंने अनायास, एक दिन यही कहकर वार्ता आरम्भ करी कि नौ-जवान पीढ़ी अपने दायित्व को नहीं निभा रही है. उनकी प्रतिक्रिया देख कर में अचंभित हुआ क्योंकि उनको लगा कि मुझ से बात करके उनका मन भी हल्का हो जाता है और उंदर कि मानसिक भड़ास भी निकल जाती है. अपने प्रति उनका यह नया विश्वास देखकर नुझे भी अच्छा लगा कि हम दोनों के सम्बन्ध अब आतंरिक हो गए हैं. एक नवीन सम्बन्धों कि स्थापना हो गई थी. अब वे प्रायः सरोज बहन कि चर्चा करते, बताते कि किस तरह गरीबी में रह कर उन्होंने सब को योग्य बनाया, उनकी शादियाँ कि और उनके घर बसाये. मैंने यह भी गौर किया कि वे अकस्मात बहन शब्द का भी प्रयोग न कर मात्र सरोज कहकर ही विषय में बताते. यह सब हमारे बीच में बढ़ते विश्वास के चिन्ह थे, मुझे अच्छे लगे. एक दिन अचानक उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या में सरोज बहन के साथ मुरादाबाद जा सकूंगा? उनकी कोई बैंक में जमा आवर्ती रकम को दुबारा से चालू करना था. वैसे वे स्वयं ही जाते, पर इन दोनों के जाने से रसोई-भण्डारण में असुविधा होती थी. सुबह तक्सी से जाकर शाम तक लौटने का कार्यक्रम था. मुझे उनका यह आग्रह अत्यंत अटपट लगा, पर में उन्हें टाल न सका. विधि के भी क्या-क्या रूप होते हैं?

अगले दिन सुबह-सवेरे ही टैक्सी आकर रुकी, में तैयार था पर उनको कोई असुविधा न हो, इस कारण में हाथ में एक बैग ले कर तुरंत ही नीचे आगया. में टैक्सी चालाक कि बगल वाली सीट पर बैठ गया और बैठते समय इन माता के अभिवादन के लिए “जय श्री राम” का उच्चारण किया. उन्होंने भी वही दोहराया. अंदर काफी अँधेरा था तो न तो उन्हों ने मुझे ठीक से देखा होगा,न मैंने ही पीछे देखने का यत्न किया. टैक्सी अपनी रफ़्तार से चल निकली. मुझे उनकी ओर देखने कि जिज्ञासा तो बहुत थी पर ओपचारिकता वश में मार्ग के इधर-उधर चलते लोगों को देखता रहा. रास्ते में एक स्थान पर टैक्सी जल-पान के लिए रुकी, तब मैंने प्रथम बार उन महिला को देखा. वे लगभग साठ वर्ष कि होंगी और आश्रम वाले वस्त्रों में न थी, उन्होंने गुलाबी रंग कि साडी पहन रख्खी थी. मैंने स्वयं ही अपना परिचय देना चाहा कि वे बोलीं, “ नवीनजी, मुझे रविजी ने आपके विषय में सब कुछ समय-समय पर बता दिया है, आपने अपना समय दिया, इसके लिए में आपकी आभारी हूँ” फिर वे रुक कर बोलीं, “ मेरे विषय में जो रविजी ने आपको बताया होगा वह ही काफी है. इसके उपरान्त हम नाश्ते-पानी के लिए अंदर गए, वहां भी वे मौन रहीं. चाय के अतिरिक्त उन्होंने एक बिस्कुट के पाकेट से दो-तीन बिस्कुट ही खाए, में अपनी ऊरी सब्जी का आनंद ले रहा था. इसके बाद टैक्सी छः घंटा के सफर के बाद मुरादाबाद में स्टेट बैंक पर जा कर ही रुकी.

वे उतर कर, बिना कुछ कहे सीधी बैंक में प्रवेश कर गईं, हम भी उतर कर अपने अंग-प्रत्यंग सीधे करने लगे. कोई आधे घंटा के बाद वे वापिस आगयीं. टैक्सी में बैठ कर उन्होंने मुझे संबोधन किया, “ यहाँ पास ही मेरा घर भी है, आपलोग बुरा न माने तो में थोड़ी देर वहां भी हो आती हूँ”. यह हमसे कोई औपचारिक प्रश्न न था, आदेश ही अधिक लगा. हम कुछ न बोले, वे ही चालाक को इधर-उधर मुड़ने का आदेश देती रहीं और शीघ्र ही हम एक पतली सी गली के आगे आ कर रिक गए. वहां उतर कर वे मुझसे बोलीं, “आप दोनों सामने वाले होटल में भोजन करलें, में एक डेढ़ घंटे में वापिस यहीं आजाऊंगी”. फिर वे मुड कर, तेज कदम रखते हुए उसी गली में चली गईं.

मैंने ड्राइवर से कहा,

“चलो भाई, भीतर जाकर कुछ खा-पी लेते हैं.” वो बोला,

“ मुझे तो धूम्र-पान कि लत है, आप चलिए, में दो-चार कश लगा कर आता हूँ.”

मैं अकेला ही होटल में प्रवेश कर गया. वहां बहुत कम उजाला था, जो भी प्रकाश था वह ऐसी स्थान पर लगी ट्यूबलाइटों से आ रहा था जो प्रत्यक्ष न थीं. कुछ देर मैं मेरी आँखों को भली प्रकार देखने लगा. न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं यहाँ पहले भी कभी आया हूँ, अजीब विचार था. ड्राईवर और वेटर , दोनों के आने का इन्तजार था, सो समय व्यतीत करने के भाव से मैं यहाँ-वहां निगाहें दौड़ाने लगा. मेरा संशय और भी दृढ होता गया कि मैं यहाँ पहले भी कभी आया हूँ. तभी वेटर आगया, मैंने पूछा, “ क्या पिछली दीवार की तरफ ऊपर जाने के लिए लकड़ी का कोई जीना है?” पहले तो उसने न ही कर दिया था, पर कुछ सोच कर बोला, “ हाँ, बहुत पहले वहां जीना था, और वह ऊपर के कमरों की ओर जाता था, पर अब तो वे सब कमरे तोड़ दिए गए हैं और उनके स्थान पर शादी-विवाह के लिए हॉल बना दिया है.” वह मुझे ऐसे देख रहा था जैसे मैं कोई अजूबा हूँ. फिर बोला, “यह सब आप क्यों पूछ रहे हैं, वोह जीना तो कोई २०-२५ वर्ष पहले तोड़ दिया गया था.” मेरे पास कोई जवाब न था, बोला, “ पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा, प्रायः मैं कभी यहाँ आया हूँ.” इतने मैं ड्राईवर भी आगया, उसके मुंह से सिगरेट की तेज बू आ रही थी. हमने खाने का आर्डर दे दिया और यहाँ-वहां की गप्पें लगाने लगे. भोजन के बाद भी हमारे पास काफी समय था, हम पैसे दे कर बहार आ गए. ड्राईवर बोला, ‘ मैं जल्दी से एक सिगरेट और पी लूं, पता नहीं अगला कश कब मिलेगा.” प्रत्युत्तर में मैंने उसे सलाह दी,” ठीक है, पर उसके बाद दो-चार पान भी चबा लेना, नहीं तो मैडम आपत्ति करेंगी.” अकेला खड़ा में भी पैर सीधे करने के इरादे से उसी गली मई टहलने लगा. आगे चल कर उसकी दो और पतली पतली गलियां बन गईं. मेरे मन में, न जाने क्यों विचार आया की बाएँवाली गली में बढ़ा जाए. थोड़ा आगे जा कर एक बहुत टूटा-फूटा सा मकान आया, बाकी अन्य मकान सही लग रहे थे. विचार हुआ की यही घर सरोज देवी का होगा क्यों की वे तो हरिद्वार में रहती हैं और यहाँ किसी के न रहने से इसकी इतनी खस्ता हालत होगई है. बहार का दरवाजा अध्-खुला था, सो में अंदर खांक कर देखने लगा.

विद्युत की तरह कड़क कर मुझे एक बहुत अत्तेत का स्मरण हो आया. वह होटल भी, और यह घर भी वही है जहाँ में बरसों पहले अपनी शादी के हेतु लड़की देखने आया था. ययद आया की उस लड़की का नाम भी तो सरोज ही था, शायद. मेरे ह्रदय की गति यका-यक बढ़ने लगी मुझे प्रतीत होने लगा की में समय की किसी दरार में फँस चूका हूँ. बहुत विचित्र कथा थी और उसे बांटने के लिए यहाँ कोई न था. बेचैन-परेशान हो कर में पुनः गली के मुहाने पर आ गया. कुछ और प्रतीक्षा के बाद वे लंबे-लंबे डग भरती हुई आयीं और तुरंत टैक्सी में बैठ गईं. ड्राईवर भी अब तक आ गया था और हमारा वापसी का सफर शुरू हो गया. में फिर आगे की सीट पर बैठा था और इस बार सोरोजजी कुछ ऐसे बैठी थीं की ऊपर लगे शीशे में उनका चेहरा साफ़ दिखाई दे रहा था, में लगभग सारे समय ही उनकी ओर घूरता रहा. मेरे मानस-पटल से उस सोरोज की सूरत बिलकुल ही मिट गई थी जिसे बहुत पहले मैं कहीं अतीत के सहारे त्याग आया था, पर उस समय की सारी अनुभूति मन में इस प्रकार साफ़ थी, ज्यों कल की ही बात हो. फिर सोच कि इतने सारे वर्षों के ढेर में दब कर उनका चेहरा भी बदल गया होगा, पहले के चेहरे से तो वैसे भी उसकी संगत कम ही होगी. फिर, होटल कि, गलिकी, उस अधखुले दरवाजे की तरफ ध्यान जाता तो लगता की मेरी याद ही सही है ओर ये लड़की भी वही है. मार्ग में सायंकाल की चाय के लिए टैक्सी एक बार फिर रुकी और हूँ तीनो ढाबे की टूटी-फूटी कुर्सियों पर बैठ गए, सरोज जी एक प्रथक टेबल के पास बैठीं थीं और मेरे स्थान से उनके चेहरे का एक भाग ही देख रहा था, में आँख गढ़ाए उनकी ओरनिहारता रहा और इस बार मेरे शक बड़ी सीमा तक हट गया, सोचा की अब रविजी से ही पूछूँगा, आखिर, वे भी तो मुरादाबाद के वासी और सरोजजी के मित्र हैं. कभी लगता की सब कुछ इतिहास की तरह शेष हो गया, अब राख छेड़ने से क्या सुख?

इसके बाद अँधेरा हो चल था और वे ऊंघने लगी थीं, मेरी भी चेष्टा समाप्त हो गई थी. हरिद्वार पहुँच कर हमने उनको आश्रम पर पहुंचा दिया, एक हलके से अभिवादन और धन्यवाद के साथ वे भी तुरंत ही भीतर चली गईं. मैंने अपनी संदूकची संभाली और पैदल ही वापिस चल दिया.

दो-तीन माह के बीत जाने पर भी मेरी द्विविधा का कोई निष्कर्ष न निकल पाया. रविजी से भी इस संशय के समाधान के हेतु में हिम्मत न जुटा पाया. मुझे एक यही बात रोकती कि सरोज जी आश्रम की श्रद्धेय निवासिनी हैं, मेरी उत्सुकता किसी प्रकार उनके आड़े नहीं आनी चाहिए. मुझे पता था, की यदि सरोज और रविजी बचपन से ही साथ बड़े हुए हैं तो उन्हें भी यह तो पता चला होगा, की कैसे एक लड़का अकेला ही लड़की देखने सरोज के घर आया था. यदि दोनों के बीच भाई-बहन के सम्बन्ध थे तो ऐसी बातों की चर्चा तो दोनों के बीच अवश्य ही हुई होगी? मन में विचार किया कि रविजी के साथ किसी और प्रसंग वश बात कभी इस ओर मोडूँगा.

इसी उलझन को लेकर मेरा अपनी दिवंगत पत्नी का एहसास और भी प्रबल हो गया. वैसे तो अपनी जीवन संगनी को कोई कभी भूलता नहीं, पर उसका स्मरण कुछ ऐसा हो जाता है जैसे आती-जाती श्वास, रगों में भ्रमण करते रक्त के कण, धीमी गति बढ़ती चाँद कि माध्यम रोशनी, आदि. अर्थात याद कुछ ऐसे आती है कि वह जीवन का अंग-प्रत्यंग हो, किसी विशेष कारण से ही उसका असहनीय अहसास होता, अन्यथा नहीं. अधिकाँश समय तो वह मुझे अपनी जीवन-रेखा के रूप में ही स्मरण है पर वे दो वर्ष जब वह कैंसर से पीड़ित हो कर उस से द्वन्द करती रही तब उसका चेहरा, हाव-भाव, नित्य प्रति दिन का प्रारूप सभी कुछ बदल गया था. हम अपने आपसी प्रेम में न हो कर हस्पताल, डाक्टरों और दवाइयों में उलझ कर ही जीवित थे. सुबह,मध्यान, सायन, रात्री हर समय दवाइयों का सोच, हर सप्ताह चिकित्सा हेतु हस्पतालों के चक्कर और आने-जाने वालों के अविराम तांते, सभी हमारी जिंदगी के नए रूप में स्थित हो गए. सदा व्यस्त रहने वाली स्त्री अधिकतर शय्या पर आराम ही करती, उसके सोने-जागने के समय सभी बदल गए. उसकी सुश्रुसा हेतु मैंने भी अपनी नौकरी को छोड़ दिया था अतः मेरा निजी कार्यक्रम भी बदल गया था और साथ ही में शेष हो गई थी हर माह आने वाली लक्ष्मी. हम आर्थिक, सामजिक, पारिवारिक और हर प्रकार से एक अनभिग्य जीवन-शैली में उतर गए थे. अंत में, उसके जाने के बाद, येही बाद के कुछ वर्ष इतने प्रबल थे कि मुझे उसकी हर याद में यही रंग-रूप ही स्मरण रहे, पहले के २८ वर्ष के सुख-दुःख भरे दिन न जाने कहाँ अद्रश्य हो कर रह गए.

सरोज जी के चेहरे से, शरीर से, स्वभाव से और उनके उठने-बैठने के अंदाज़ से मुझे अपने स्वर्गीय पत्नी कि बहुत तीव्र याद आती. इसलिय नहीं के दोनों के चेहरे, कद-काठी, रंग-रूप में कोई सामंता थी, बल्कि इस लिए कि अचानक मुझे न जाने क्यों सरोजजी के प्रति घोर आकर्षण हो आया था. में अपनी रोग से संघर्ष करती पत्नी के अंतिम वर्षों में उनके बहुत अंतरंग हो गया था, उनके अतिरिक्त मेरे जीवन का अन्य कोई ध्येय ना रह गया था. में उसके इस समय के जीवन से बेहद व्याकुल और आहतरहता था, यही कारण था कि नॉएडा में रहते-रहते कभी इस व्यथा से उबर नहीं सका और मुझे अंततोगत्वा हरिद्वार का आश्रय लेना पड़ा. मुझे प्रसन्न करने के लिए वो सदा हँसती-मुस्कराती रहती, कभी-कभी तो अपनी बीमारी का भी व्यंग करती, हम सब का, घर-गृहस्ती का बच्चों का और सभी चिंतित मित्र-सम्बन्धियों कि बातें करती, बीमारी को झुटला कर घर में यहाँ वहां विचरती और शीघ्र ही थक कर पुनः शय्या पर चली जाती. कभी इतनी अधिक बीमार होजाती,कि, मुझे लगता कि इस बार वह हस्पताल से लौट कर न आपएगी, पर हर बार वह ही विजई हो कर आती, बस एक बार, अंतिम बार ही वह जिंदगी से हार गई, फिर कभी नहीं आई.

सरोजजी से मात्र कुछ घंटों के साथ से मुझे उनकी यही छुपी हुई मानसिक स्थिति ही उजागर हुई, उनके चलन में वही मायूसी प्रतीत होती और वह भाव दीखे जो जीवन से त्रस्त किसी व्यक्ति में होते हैं, प्रायः. यही समताएं थी, इतना कुछ विषम होते हुए भी. अब हर समय सरोजजी की परेशानियों से प्रेरित हो कर मुझे सुमिता के अंतिम वर्षों की स्मृति सताती.

एक दिन अवकाश का दिन था, और आदतन रविजी इस दिन कमरे को बंदकर, विश्राम कर पूरे सप्ताह की थकान उतारते थे. उस दिन वे मुझसे पहले ही उठ गए थे, सो एक ट्रे में चाय और कुछ नमकीन रख कर मेरे कमरे के बहा,बाहर वाले वरांडे में ले आये. में भी उठ कर उनकी कुर्सी के पास अपना मूढा खींच कर बैठ गया. ट्रे से उन्होंने अपना प्याला उठा कर ट्रे मेरी ओर खिसका दी. मुझे उनकी यह कभी-कभार की मेहरबानी, बहुत अच्छी लगती थी, क्योंकि शाम की चाय बनाने का मेरा दायित्व रहता था. वैसेभी, आज दिन भर मैंने सारा समय अपने उपन्यास लिखने में ही व्यतीत किया था और मेरी इच्छा थी कि किसी के साथ हलकी=फुल्की बातें करूं. वैसे भी मेरे उपन्यास कि कहानी में एक रुकाव सा आया हुआ था, यह मन हल्का करने का उत्तम साधन था. रविजी स्वयं ही बोले,

“आप जबसे मुरादाबाद से आये हैं, कुछ परेशान से लग रहे हैं.”

में उनके इस प्रश्न से अति अचंभित हुआ क्योंकि यह समाधान तो में उनसे प्राप्त करना चाहता था, उन्होंने कैसे मरे विचार भांप लिए? बात को सीधी न करने के हेतु मैंने पूछा,

“हाँ..... , सरोज देवी को देख कर मुझे लगा कि वे कुछ अस्वस्थ हैं, संभवतः, उन्हें कोई बड़ी शारीरिक यातना है क्योंकि वे प्रायः सांस लेने में लाचार होजाती थीं और अधिक प्रयास करके ही वे राहत पाती थीं. यह प्रयास किसी दमे के बीमार से कतई भिन्न ही लगता था”

रविजी ने अपना चाय का प्याला रेलिंग की दीवार पर रख दिया, बोले,

“अब यही संक्रामक रोग पुनः दूसरे स्तन पर आ गया है”

उनकी चाय से निकलती भाप हवा के मंद झोंकों में लुप्त होते हुए में देख रहा था, उनसे आँखे हटा कर ही यह संशय मैंने व्यक्त किया था. कनखियों से देखा तो उनकी गंभीर मुद्रा और भी गंभीर हो गई थी. मुझे अपने कहे का अफ़सोस लगने लगा. काफी देर बाद उन्होंने अपनी द्रिष्टि गंगा जी धारा पर जमा कर बड़े हलके स्वर में कहा,

“सरोज को सात वर्ष पूर्व स्तन का कैंसर हो गया था, तब वो मुरादाबाद में एक दम अकेली ही रहती थी, शल्य चिकित्सा, कीमो-थिरेपी व रेडियो की सिकाई से उनकी जान तो बच गई थी पर वे मानसिक और शारीरिक रूप से कतई टूट गईं थीं. फिर, उनके भाई-बहनों का रुख भी ऐसा था की उनकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आया. अतः, वो यह बात किसी को बताती न थी और सदा मन ही मन में घुलती जाती थी. मैं ही उसे मुंह-बोल बहन बना कर यहाँ रहकर भी मुरादाबाद में ही उसका उपचार करता रहता था. मझे लगा की मैं उनको पर्याप्त समय नहीं दे पा रहा हूँ, सो, गुरूजी के आदेश से उसको अपने साथ आश्रम में ले आया.”

वे अचानक बात को अधूरी छोड़ कर मौन हो गए. अपने चाय के प्याले को वहीँ छोडकर वे अपनी आँखों में आयी नमी को छुपाने के लिए सहसा उठ कर अपने कमरे में चले गए. मैं यह प्रसंग सुन कर स्वयं ही परेशान था क्योंकि, सुमिता को भी यही बीमारी थी, मेरे सामने सुमिता के अंतिम समय का चेहरा घूम गया. क्या मैंने बीमार अवस्था में सरोज जी को देख कर सुमिता को ही सही में देखा था? पर सरोजजी तो कैंसर के हमले पर एक बार विजय पा चुकीं थीं. अब ४-५ सालों से ठीक भी रहीं, मन कहता की वह ठीक ही होंगी पर विवेक कहता की आवश्य ही वह भयानक रोग उन पर फिर लौट आया है. ऐसा सोचने से मुझे अपने ही विचारों से घृणा हो आयी. उठ कर अपने कमरे में आया तो देखा की मेरे उपन्यास के अधरचित पन्ने पंखे की हवा में फाड-फाड़ा रहे हैं, मेरी मानसिक दशा के स्वरुप ही.

मेरा मन भी अब उतना ही आर्त लगने लगा जितना की रविजी का स्वयं था. यों देखा जाए, तो कैंसर जैसी बड़ी बीमारी से तृस्त रोगी ही स्वजनों की हिम्मत बढ़ाता है, अपनी व्यथा वह स्वयं ही सहता रहता है. संभव मृत्यु को भी वही अनदेखा करता है. ऐसे मैं उस रोगी के मनः स्थिति का वर्णन तो असंभव ही है. मैं अपना अचंभित सा मस्तिष्क लिए अभी खड़ा ही था, कुछ समझ मैं नहीं आरहा था, कि क्या कहूँ, क्या करूं? तभी रविजी पुनः लौट कर आगये और मेरी शय्या पर धीरेसे बैठ गए. अपनी निगाह खुले दरवाजे के बहार क्षितिज पर गदा कर धीमे स्वर मैं कहने लगे,

“ दो माह पूर्व सरोज का सालाना रेविएव हुआ था, और जो रिपोर्ट आयी है, उसमे दुबारा कैंसर के अणु उसके रक्त मैं पाए गए, एक्क्स रे के बाद पता चला कि उसके दूसरे स्तन मैं यह रोग पुनः हो गया है, परन्तु, इस बार सरोज ने यह तय कर लिया है कि वोह अपना उपचार नहीं करवाएगी, और यूँ ही तड़प-तड़प कर अपने को नष्ट कर लेगी”

रुक कर बोले, “सच भी है, उपचार के पैसे न तो अब उसके पास हैं, न मेरे पास, आश्रम भी ७-८ लाख रूपए का खर्चा नहीं उठा सकेगा.”

रविजी कि आँखों से अश्रुओं कि अविरह धारा प्रवाहित हो रही थी और वे उस को रोकने का कोई प्रयास भी नहीं कर रहे थे, मनो दिल का दर्द आंसुओं मैं बहाना चाह रहे थे. वे सरोज के लिए अधिक ही परेशान थे, और इन दोनों कि परेशानी के वजह से मैं भी बदहवास हो रहा था, मैं अपने को रोक न पाया और मेरी भी सुबकी बंध गई. इस बार वे वहाँ बैठे टसुए बहाते रहे, मैं चल कर फ्लैट से बाहर आ गया, और धीमे क़दमों से गंगाजी कि ओर चल दिया. वहां किनारे पर पड़ी बड़ी बड़ी चट्टानों के बीच में यहाँ-वहां भ्रमण करने लगा, मन को हल्का करने के लिए. थक गया तो वहीँ एक चट्टान पर बैठ गया, न जाने कितनी देर तक वहां में अनमना सा बैठा रहा, दूर घरों में एक-एक करके, कहीं ट्यूब लाइट कहीं बल्ब का कृत्रिम धूमिल उजाला होते देख रहा था. मेरे इर्द-गिर्द रात्री का अँधेरा गहन होने लगा. शहर से आती आवाजें भी कम होती गईं और अब गंगाजी कि कलरव मेरे मन को शांत करने के लिए अमृत बरसा रही थी. मन हल्का हुआ तो रविजी कि वह दयनीय सूरत उतर आई, में उठ कर पथ्थरों के बीचसे कोई मार्ग ढूँढता-टटोलता फ्लैट कि ओर चल दिया. सुमिता के अंतिम दिनों कि तस्वीर नज़र आने लगी, सरोजजी का भी अब कुछ ऐसा ही हश्र होने वाला था.

घर पहुंचा तो रविजी गंगा आरती के लिए जा चुके थे. मैंने कार निकाली और अपने एक मित्र के घर चला गया. उनसे अधिक समय से मिलना नहीं हुआ था सो वहां उनको और उनके नाती-पोतों वाले घर में जा कर बहुत आनंद हुआ, कुछ देर के लिए सही, पर उपने उथल-पुथल हुए मन को अंततः जीत ही लिया. वहां जीवन का यह स्वरुप देख कर एक जीवन से विमुख आत्मा को संतोष मिला. रात को उन्होंने जाम-पैमाने कि जिद करी, और रात बहुत बीत चुकी थी, सो, वहीँ पर खा-पी कर सो रहा. प्रातः आँख देर से खुली, सूरज देवता भी काफी ऊपर आ चुके थे, बाहर, आँगन में बच्चे किलकारियां भरके हंस-खेल रहे थे. गली में सब्जी-भाजी बेचने वालों कि भी गुहार सुनाई पड़ने लगी. सुरा पान से जो शरीर में शिथिलता आगई थी वोह डीमे-धीमे भंग हुई और में गुसलखाने में चला गया.

जब में शौच-निवृत हो कर आँगन में आया तो मित्र कि पत्नी ने गरमा-गरम चाय कि प्याली सामने रख दी, पास ही रसोई से परांठे सिकने कि ध्वनि और खुशबू मेरे तन-बदन में एक नया एहसास गठित करने लगी. उस दिन मैंने निर्णय कर लिया था कि आज आश्रम से छुट्टी, कुछ देर और इस सांसारिक रूप का आनंद उठाया जाय. में अपने फ्लैट पर दोपहर बाद ही पहुंचा और कमरा बंद करके सो रहा. आश्रम को सोचना देना अथवा रविजी के विषय में पूछने के लिए में साहस नहीं जुटा सका. दोपहर कि नींद में स्वप्न देखा कि सब कुछ ठीक होता तो सरोजजी ही मेरी पत्नी होती, में हडबड़ाकर उठ गया, यह कैसा अद्भुत विचार, पर संभवतः मेर मन के किसी कोने में ऐसा विछार तो रहा ही होगा.

शाम हो चली थी और अपने नित्य क्रम के अनुसार रविजी भी आ गए. वे सीधे मेरे कमरे में ही आये और बिस्तर पर एक ओर बैठ गए. उनके चेहरे से लगा कि वे हमारी कल कि बात मन से भुला चुके थे. बोले,

“चलो, चाय पीते हैं, नहीं तो गंगाजी कि आरती के लिए हमें देर न हो जाए”

वे उठकर रसोई में चाय बनाने गए और में अपने कपड़े बदलने लगा. रात को हम भोजन करके ही लौटे. वे तो स्वभावतः ही मौन रहते थे में भी उसी खामोशी से साठ चल रहा था. मुझे नहीं लग रहा था कि वे अब कभी भी सरोज जी कि चर्चा छेडेंगे, पर मेरे मन में सरोजजी और उनकी बीमारी को ले कर प्रश्न घूम रहे थे. घर पहुँच कर रविजी, “शुभरात्रि” कह कर अपने कक्ष में चले गए. मन कि उलझन और दोपहर कि नींद के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी, बहार बालकनी में कुर्सी डालके दूर शहर ही झिलमिलाती रौशनी को निहारता रहा. विचार आरहा था कि कैसे में सरोजजी की सहायता करूं? सात-आठ लाख रुपये, यूँ ही तो नहीं आजायेंगे. मैं अपना नॉएडा का फ्लैट बेच सकता था, कार बेच सकता था, पैसे ब्याज पर उठा सकता था, यह सब एक मैं ही कर सकता था, आश्रम या अन्य कोई नहीं. पर नॉएडा का घर तो मेरी पत्नी सुमिता कि यादों का भवन था, फिर क्या कर्रों? और भी ढेरों बेसिर-पैर के विचार उठे और मैं कब नींद कि गोद मैं चला गया , पता ही न चला.


२६ जुलाई, २००९.



आज पूर्णिमा की रात थी, आश्रम में प्रत्येक पूर्णिमा और एकादशी को त्यौहार के रूप में मनाया जाता था. अधिकतर माताएं व्रत करती थीं, और प्रातः से ही भजन कीर्तन आदि आरम्भ हो जाते थे. गुरूजी उस दिन नित्य कार्यक्रम त्याग कर उस पूर्णिमा अथवा एकादशी का वर्णन बड़े दार्शनिक ढंग से करते थे, आज यही हो रहा था. सभी जन अत्यंत व्यस्त थे, में रविजी की सहायता के लिए प्रसाद के फल काट रहा था, हवन-पूजन के बाद दोपहर भोजन की तय्यारियां शुरू हुई, यहाँ भी में रविजी के साथ ही सहायता कर रहा था, पर समय-असमय मेरी निगाहें सरोज जी को देख्नेढून्द्ती रहती थीं. वे उस दिन बीमार थीं अतः उपने कमरे में विश्राम कर रहीं थीं. तीन बजे जब हम निकलने के लिए उद्द्यत हुए तो सहसा उन्हें द्वार के पास सहारा ले कर खड़े देखा. उनके चेहरे पर बीमारी के असर से बड़ी धूमिल कान्ति थी. वे पूजा के बाद सबको धूप दिखा रहीं थीं, अतः, हाथ में एक थाली में पुष्प, दीप, नैवेद्य आदि रख कर वे सब के पास जाती और सब धूप ले कर हाथ जोड़ देते थे. मैंने उठ कर दीपक की धूप ली और अपने सर पर लगाई तो सरोजजी ने मुझे प्रसाद-स्वरुप एक बताशा दिया. मेरे हाथ यंत्रवत अवश्य प्रसाद के लिए बढे थे, पर मेरी द्रिस्ती उनके चेहरे के भाव पढ़ना चाहती थी. उनके सौम्य चेहरे पर उनके शांत भाव थे पर आँखों में जैसे किसी घोर निराशा के ही संकेत थे. मुझे लगा कि उनकी जीने चाह सिमित सी गई है, में उनसे बात करना चाहता था, पर वे मुडके वहां से चली गईं.

बेबस, मुझे सुमिता याद ने घेर लिया, वोह भी अंतिम कुछ दिनों में जब विचलित होती थी तो उसकी आँखों में ऐसा ही सूनापन उतर आता था. इससे हम कुछ समझ न पाते थे, सांत्वना देना भी व्यर्थ प्रतीत होता, सिर्फ अपनी हीनता ही अगोचर होती. यह समझ न आता कि कैसी कामना करूं, उनके जीवन की, या उनकी यातना के अंत होने की. एक मन कहता की वे शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करें, तो विचार उठता, कि यह तो असंभव है. दूसरा विचार? हे भगवान! क्या कोई किसी के मरण कि कामना करता है? तथ्य तो यही है कि अगर कोई ठीक नहीं हो सकता तो उसका जीवन शीघ्र समाप्त हो जाये और उसको पल-पल के त्रास से तो निदान मिल जाए. दोनों विचारों में मेरी ही पराजय निश्चित होती, भगवान ठीक न करें तो अपने पास बुला लें. सुमिता भी कभी टेलीविजन में कोई सीरियल देखती तो लगता वह अपनी बीमारी का अहसास भूल जाती है, जैसे भी कष्टपूर्ण हो, वह जीवन जी तो रही है. यही हरी कि इच्छा! सरोजजी कि आँखों में देखा कि वे अपनी बीमारी के आगे आत्म-समर्पण कर चुकी हैं.

रात्री भोजन के उपरान्त मै और रविजी बालकनी में बैठे बातें कर रहे थे.में उन्हें आज कि घटित घटनाओं के विषय में और अपने मन में उत्पन्न उपद्रव के विषय में बतला रहा था. रविजी ध्यान से सुन रहे थे, मात्र हूँ-हूँ का ही उच्चारन करते थे. उनको यथार्थ रूप से मेरे भावेश कि थाह मिल गयी थी कि कैसे मैं सोरोज जी कि स्थिति को अपनी दिवंगत पत्नी के रूप मैं यत्न-ग्रस्त देख रहा था. अंततः बोले,

“गरीबी एक महा अभिशाप है और अगर इस समय अपने भी द्रिष्टि मोड़ लें तो यह महा अभिशाप से भी बढ़ कर है, सरोजजी इस बात को भली भांति समझती हैं. उनके मन भी हमारी तरह जीने कि ललक है, पर वह आर्थिक द्रिष्टि से असहाय हैं, वो क्या, हम सभी को यही समस्या है. इसी लिए उनके उपचार न करने के निर्णय को हम सभी अति दुखपूर्वक ग्रहण करते हैं.”

“ मुझे प्रतीत होता है कि धन का आभाव ही एक मात्र समस्या नहीं है, प्रायः उनके स्वजनों के रवैय्ये से वे अधिक प्रभावित हैं, क्यों कि पैसे तो वे अपने मुरादाबाद वाले घर को बेच कर भी पूरे कर सकती हैं. मेरे समझ से तो उन्होंने जीवन संघर्ष इस लिए त्याग दिया है कि उनके अपनों ने मुंह मोड़ लिया है.”

रविजी कि आँखें पुनः नाम हो आयीं, गला साफ़ करके बोले, “ मुरदाबाद् का घर किसी एक नाम नहीं है और कुछ करने से पहले, सब भाई-बहन घर उनके नाम करके कचहरी मैं लिखित-रूपसे दें, पहले तो वे ऐसा करेंगे ही नहीं, और अगर करेंगे तो भी उस प्रक्रिया मैं अत्यधिक समय लग जाता है, उनके पास शायद इतना जीवन ही शेष न हो.” रविजी यह कहते कहते अपने कमरे कि ओर प्रस्थान कर गए.

मैं उस रात सोरोजजी की इस समय मैं भी शांत और सौम्य चितवन के विषय मैं सोचता रहा. और उस शांत चितवन कि आड़ मैं उनके अपने स्वजनों कि बेरुखी को को भी देखता रहा. मेरा ह्रदय अत्यंत द्रवित हो रहा था, मुझे रह-रह कर सुमिता के साथ व्यतीत दर्द, मायूस ममता, मायूसी और पूर्ण विवशता के क्षण याद आरहे थे. यों ही रात के सारे पहर बीत गए, मुझे नींद न आई. मुझे लगा की मैं सुमिता की अंतिम घड़ियों मैं प्रचुर सेवा न कर सका था, क्या भगवान ने मुझे यह कसर पूरी करने का फिर एक अवसर दिया है? मैं अगर सरोजजी का साथ दूं तो संभवतः उनकी जीने की आस पुनः नवीन हो जाय, आगे जीवन हो या न हो, यह तो ऊपरवाला ही जाने. वैसे भी मेरे निजी जीवन का भी कोई विशेष ध्येय न था, मैं यहाँ-वहां न जाने किस इच्छित वास्तु को पाने का उद्यम कर रहा हूँ.

अगले दिन सुबह की चाय लेते समय मई रविजी से बोला,

“रविजी, सरोज जी का रोग इतना भी असाध्य नहीं है, समय पर उनका उपचार हो जाए तो वे पूर्णतः स्वस्थ्य हो सकती हैं. उनकी इच्छा-शक्ति मात्र इस लिए टूट गई है की उनके भाई-बहन उनके साथ नहीं,बल्कि उलटी उनकी अवहेलना ही करते हैं. धन का आभाव भी एक आवरण है, उनका कष्ट अपनी ममता और बलिदान का हनन है, इतना कुछ होने के बाद भी वे इन्ही दुष्ट भाई-बहनों के चरित्र की झूटी शान को अपनी बामारी से ढकना चाहती हैं. इनका प्यार सच्चा है.”

रविजी चेहरे के भाव तो बदले, पर मेरी समझ मैं कुछ न आया. क्या यह भाव विस्मय के थे अथवा, कौतूहल के. वे स्वयं ही बोले,

“आप ठीक ही कह रहे हैं, मेरी भी जब सरोजजी से इस विषय मैं चर्चा हुई थी तब मुझे भी ऐसा ही लगा था, परन्तु हियर पूछने पर उन्होंने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया था.”

मेरा संशय और भी पक्का हो गया, वे उठ कर रसोई मैं अपना प्याला रखने चले गए, लौट कर आये तो ,मैंने पूछा,

“मेरे विचार में सरोजजी अपनी इसी विवशता के लिए ही यहाँ आश्रम में आयीं, हो सकता है की वे मानव सेवा करके अपने द