अवगति
खड़े वृक्ष से झूम रहे हम ले समीर स्पंदन
राही राह भटके, अनेक जीवन के भाव वंदन
कब, कहाँ, किधर की सुध न ली कभी और
मुड चले उस ओर, जहाँ लेगाया हवा का दौर.
अपनी ही गति से गतिमान उलझा सा वर्तमान
जीवन की धूल में लिपटा, सहमा-सहमा सा इंसा
प्रकृति के अंतरमय से विकसित हर एक पल
मन में ढूँढ रहे समस्या क्या है, क्या है इसका हल
थम तो सब कुछ जाता है, शोषित और विकल
पृथ्वी के पारशव से ही उभरा सरोवर ये अविरल
१९७३
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