आस
किस तरह सुबह होती है
शाम होती है
जिंदगी चलती नहीं अकेले
कुर्बान होती है
कैसे माने,कि तुम आओगे
हंस कर दिखाओगे
एक आस लगी रहती है
अपने पास बुलाओगे
यूँ भी दिल लगता नहीं
वक़्त गुजरता नहीं
ये मायूसी दूर जाती नहीं
दिल संभालता नहीं
अरमां कोईभी दीखता नहीं
आरजूएं लाख मगर
तेरी यादों से न हूँ परेशां
सहारा एक उन्हीं का है
दिन गुजरने का न है ख़याल
रातें भी बीतती हैं कहाँ
धूमिल चंद-तारों पे है नज़र
पास बुलाओगे क्या?
२००६
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