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कुछ यों ही

कुछ यों ही


देर बहुत हुई, इस सोच में सुबह से शाम हुई

रुसवाई के ये किस्से हमारे, जुबां-ए आम हुई

जिंदगी जीते गए, हसरतें यूँ क़त्ल-ए-आम हुई

चर्चे चले यों दिनों-दिन, दास्तां ही तमाम हुई


जुल्फों का बहता पानी सब साथ ले गया

यादें-वादें, नगमे ताल, सारे साज़ ले गया

ग़ज़लें, कजरी, ठुमरी, टप्पे, राग ले गया

लब यूँ ही कांपते रहे, वो अलफ़ाज़ ले गया



 
 
 

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