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झक-झकी

झक-झकी


राही

पथिक था,

भटक गया,

राह

सूनी थी

न पेड़, न कोई

टहनी थी

रात भी घनेरी

चाँद-तारे थे

मध्यम

सूझी उसे

मंजिल कोई

कुछ

हार के,

झक मार के,

लगा लेने

रस

दुनिया से जुदाई का

अब भी है वो

राही

एक और

नयी मंजिल का


दीपक


जल रहा था

प्रकाशमय

पवन चली

मस्त

सामना मुस्सेबतों का

शमा ने करी बेवफाई

फिर

जीवन रस कि भी कमी

बुझ गया

दीपक था

१९७१




कविता


सर खुजा कर

तकदीर

जगा कर

लैम्प जला कर

दिल लगा कर

लिख मारी

एक कविता

कहीं

छप न सकी

कहीं

खप न सकी

मेरी

कमबख्त कविता



स्वर


कुछ तैरते हवाओं में

कुछ डूबते सभाओं में

कुछ भेंट चढ़ जाते

गगन को

कुछ भेद जाते

जटाओं को

कुछ उठते नहीं

कुछ डूबते नहीं.

मुर्गे की तरह

जगाते भी नहीं

कुछ सुला देते हैं

लोरी की तरह

कुछ बजते

स्टीरियो पर

फाड़ते कान सड़कों पर.

होते हैं

फिर भी हैं

मुसीबत, इनका

अर्थ नहीं कोई


प्रणाम


तुहें उठाने को

आज सवेरे

नए मोड़ पर

मैं करता तुम्हें प्रणाम

अब तो जागो

भई

जहाँ पे छा जाओ

कहीं तुम्हारे,

इस सोने पर

लिख न दें

इतिहास

तुम को लोग कहें

कुम्भकर्ण

ज़माने में हो

परिहास


अतीत

प्यार में हमें न देखी मंजिल कोई

हर मुकाम पर डूबे

सभी अरमान, हमारे

एक धुंध है,

कशिश है

बेकरारी है

फिर भी

आस के पंख फैलाए

साथी कई नज़र आये

कोई तो देता

साथ मेरा

किस्मत कि क्या बात

दो राहें

एक

हो गयीं

न जाने

कहाँ

डगर खो गयी

उमंगें

तराने

सब अतीत में

सो गए

परछाई


दिल के

उन्ही टुकड़ों से पूछो

हुए साहिल के टूटे

कगारों से पूछो

पूछो

इन दिलकश नजारों से

महोब्बत भरा

सलाम एक भेजा था

तुम्हें

अँधेरे में

रोशन चराग किया था मैंने

क्यों तुमने उसे

बुझा दिया

प्यार को ही

यों भुला दिया

तन्हाइयां

पड़ी हैं पीछे मेरे, ज्यों

अतीत की परछाईयां


१९७१


 
 
 

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